श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
‘मोहाद् गृहीत्वासद्ग्राहान्’- मूढ़ता के कारण वे अनेक दुराग्रहों को पकड़े रहते हैं। तामसी बुद्धि को लेकर चलना ही मूढ़ता है।[1] वे शास्त्रों की, वेदों की, वर्णाश्रमों की और कुल-परंपरा की मर्यादा को नहीं मानते, प्रत्युत इनके विपरीत चलने में, इनको भ्रष्ट करने में ही वे अपनी बहादुरी, अपना गौरव समझते हैं। वे अकर्तव्य को ही कर्तव्य और कर्तव्य को ही अकर्तव्य मानते हैं, हित को ही अहित और अहित को ही हित मानते हैं, ठीक को ही बेठीक और बेठीक को ही ठीक मानते हैं। इन अद्विचारों के कारण उनकी बुद्धि इतनी गिर जाती है कि वे यह कहने लग जाते हैं कि माता-पिता का हमारे पर कोई ऋण नहीं है। उनसे हमारा क्या संबंध है? झूठ, कपट, जालसाजी करके भी धन कैसे बचे? आदि उनके दुराग्रह होते हैं। संबंध- सत्कर्म, सद्भाव और सद्विचारों के अभाव में उन आसुरी प्रकृति वालों के नियम, भाव और आचरण किस उद्देश्य को लेकर और किस प्रकार के होते हैं, अब उनको आगे के दो श्लोकों में बताते हैं। |
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