श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
व्याख्या- ‘काममाश्रित्य दुष्पूरम्’- वे आसुरी प्रकृति वाले कभी भी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेते हैं। जैसे कोई मनुष्य भगवान का, कोई कर्तव्य का, कोई धर्म का, कोई स्वर्ग आदि का आश्रय लेता है, ऐसे ही आसुर प्राणी कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेते हैं। उनके मन में यह बात अच्छी तरह से जँची हुई रहती है कि कामना के बिना आदमी पत्थर जैसा हो जाता है; कामना के आश्रय के बिना आदमी उन्नति हो ही नहीं सकती; आज जितने आदमी नेता, पंडित, धनी आदि हो गए हैं, वे सब कामना के कारण ही हुए हैं। इस प्रकार कामना के आश्रित रहने वाले भगवान को, परलोक को, प्रारब्ध आदि का नहीं मानते। अब उन कामनाओं की पूर्ति किनके द्वारा करें? उसके साथी (सहायक) कौन है? तो बताते हैं- ‘दम्भमान-मदान्विताः।’ वे दम्भ, मान और मद से युक्त रहते हैं अर्थात वे उनकी कामनापूर्ति के बल हैं। जहाँ जिनके सामने जैसा बनने से अपना मतलब सिद्ध होता हो अर्थात धन, मान, बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठा, आदर-सत्कार, वाह-वाह आदि मिलते हों, वहाँ उनके सामने वैसा ही अपने को दिखाना ‘दम्भ’ है। अपने को बड़ा मानना, श्रेष्ठ मानना ‘मान’ है। हमारे पास इतनी विद्या, बुद्धि, योग्यता आदि है- इस बात को लेकर नशा-सा आ जाना ‘मद’ है। वे सदा दम्भ, मान और मद में सने हुए रहते हैं, तदाकार रहते हैं। ‘अशुचिव्रताः’- उनके व्रत-नियम बड़े अपवित्र होते हैं; जैसे- ‘इतने गाँव में, इतने गायों के बाड़ों में आग लगा देनी है; इतने आदमियों को मार देना है’ आदि। ये वर्ण, आश्रम, आचार-शुद्धि आदि सब ढकोसलाबाजी है; अतः किसी के भी साथ खाओ-पीओ। हम कथा आदि नहीं सुनेंगे; हम तीर्थ, मंदिर आदि स्थानों में नहीं जाएँगे- उनके व्रत-नियम होते हैं।
|
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज