श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
‘अहिताः’- उनका स्वभाव खराब होने से वे दूसरों का अहित (नुकसान) करने में ही लगे रहते हैं और दूसरों का नुकसान करने में ही उनको सुख होता है।
‘जगतः क्षयाय प्रभवन्ति’- उनके पास जो शक्ति है, ऐश्वर्य है, सामर्थ्य है, पद है, अधिकार है, वह सब-का-सब दूसरों का नाश करने में ही लगता है। दूसरों का नाश ही उनका उद्देश्य होता है। अपना स्वार्थ पूरा सिद्ध हो या थोड़ा सिद्ध हो अथवा बिलकुल सिद्ध न हो, पर वे दूसरों की उन्नति को सह नहीं सकते। दूसरों का नाश करने में ही उनको सुख होता है अर्थात पराया हक छीनना, किसी को जानने से मार देना- इसी में उनको प्रसन्नता होती है।
सिंह जैसे दूसरे पशुओं को मारकर खा जाता है, दूसरों के दुःख की परवाह नहीं करता और राजकीय स्वार्थी अफसर जैसे दस, पचास, सौ रुपयों के लिए हजारों रुपयों का सरकारी नुकसान कर देते हैं, ऐसे ही अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए दूसरों का चाहे कितना ही नुकसान हो जाए, उसकी वे परवाह नहीं करते। वे आसुर स्वभाव वाले पशु-पक्षियों को मारकर खा जाते हैं और अपने थोड़े से सुख के लिए दूसरों को कितना दुःख हुआ- इसको वे सोच ही नहीं सकते।
संबंध- जहाँ सत्कर्म, सद्भाव और सद्विचार का निरादर हो जाता है, वहाँ मनुष्य कामनाओं का आश्रय लेकर क्या करता है- इसको आगे के श्लोक में बताते हैं।
|