श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
जिन प्राणियों को भगवान मनुष्य बनाते हैं, उन पर भगवान विश्वास करते है कि ये अपना कल्याण (उद्धार) करेंगे। इसी आशा से वे मनुष्य शरीर देते हैं। भगवान ने विशेष कृपा करके मनुष्य को अपनी प्राप्ति की सामग्री और योग्यता दे रखी है और विवेक भी दे रखा है। इसलिए ‘लोकेऽस्मिन्’ पद से विशेष रूप से मनुष्य की ओर ही लक्ष्य है। परंतु भगवान तो प्राणिमात्र में समान रूप से रहते हैं- ‘समोऽहं सर्वभूतेषु’।[3] जहाँ भगवान रहते हैं, वहाँ उनकी संपत्ति भी रहती है, इसलिए ‘भूतसर्गो’ पद दिया है। इससे यह सिद्ध हुआ कि प्राणिमात्र भगवान की तरफ चल सकता है। भगवान की तरफ से किसी को मना नहीं है। मनुष्यों में जो सर्वथा दुराचारों में लगे हुए हैं, वे चाण्डाल और पशु-पक्षी, कीट-पतंगादि पापयोनि वालों की अपेक्षा भी अधिक दोषी हैं। कारण कि पापयोनि वालों का तो पहले के पापों के कारण परवशता से पापयोनि में जन्म होता है और वहाँ उनका पुराने पापों का फलभोग होता है; परंतु दुराचारी मनुष्य यहाँ जान-बूझकर बुरे आचरणों में प्रवृत्त होते हैं अर्थात नये पाप करते हैं। पापयोनि वाले तो पुराने पापों का फल भोगकर उन्नति की ओर जाते हैं और दुराचारी नये-नये पाप करके पतन की ओर जाते हैं। ऐसे दुराचारियों के लिए भी भगवान ने कहा है कि यदि अत्यंत दुराचारी भी मेरे अनन्य शरण होकर मेरा भजन करता है, तो वह भी सदा रहने वाली शांति को प्राप्त कर लेता है।[4] ऐसे ही पापी-से-पापी भी ज्ञानरूप नौका से सब पापों को तरकर अपना उद्धार कर लेता है।[5] तात्पर्य यह कि जब दुराचारी-से-दुराचारी और पापी-से-पापी व्यक्ति भी भक्ति और ज्ञान प्राप्त करके अपना उद्धार कर सकता है, तो फिर अन्य पापयोनियों के लिए भगवान् की तरफ से मना कैसे हो सकती है? इसलिए यहाँ ‘भूत’ (प्राणिमात्र) शब्द दिया है।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1) अहो अमीषां किमकारि शोभनं प्रसन्न एषां स्विदुत् स्वयं हरिः।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे मुकुन्दसेवौपथिकं स्पृहा हि नः ।। (श्रीमद्भा. 5।19।21)
‘अहो! जिन जीवों ने भारतवर्ष में भगवान की सेवा के योग्य मनुष्य-जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है? अथवा इन पर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गए हैं? इस परम सौभाग्य के लिए तो हम भी निरंतर तरसते रहते हैं।’
(2) गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे ।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ।। (श्री विष्णु पुराण 2।3।24)
‘देवगण भी निरंतर यही गान करते हैं कि जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग के मार्गभूत भारत वर्ष में जन्म लिया है, वे पुरुष हम देवताओं की अपेक्षा भी अधिक धन्य (बड़भागी) हैं।’
- ↑ मानस 7।44।3
- ↑ गीता 9:29
- ↑ गीता 9।30-31
- ↑ गीता 4:36
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज