श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
परंतु जो लोग भजन-स्मरण के साथ आसुरी संपत्ति का भी पोषण करते रहते हैं अर्थात कुछ भजन-स्मरण, नित्यकर्म आदि भी कर लेते हैं और संसारिक भोग तथा संग्रह में भी सुख लेते हैं और उसे आवश्यक समझते हैं, वे वास्तव में साधक नहीं कहे जा सकते। कारण कि कुछ दैव स्वभाव और कुछ आसुर स्वभाव तो नीच से नीच प्राणी में भी स्वभाविक रहता है। एक विशेष ध्यान देने की बात है कि अहंता के अनुरूप प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्ति के अनुसार अहंता की दृढ़ता होती है। जिसकी अहंता में ‘मैं सत्यवादी हूँ’ ऐसा भाव होगा, वह सत्य बोलेगा और सत्य बोलने से उसकी सत्यनिष्ठा दृढ़ हो जाएगी। फिर वह कभी असत्य नहीं बोल सकेगा। परंतु जिसकी अहंता में ‘मैं संसारी हूँ और संसार के भोग भोगना और संग्रह करना मेरा काम है’ ऐसे भाव होंगे, उसको झूठ-कपट करते देरी नहीं लगेगी। झूठ कपट करने से उसकी अहंता में ये भाव दृढ़ हो जाते हैं कि ‘बिना झूठ कपट किए किसी का काम चल नहीं सकता, जिसमें भी आजकल के जमाने में तो ऐसा करना ही पड़ता है, इससे कोई बच नहीं सकता’ आदि। इस प्रकार अहंता में दुर्भाव आने से ही दुराचारों से छूटना कठिन हो जाता है और इसी कारण लोग दुर्गुण-दुराचार को छोड़ना कठिन या असंभव मानते हैं। परमात्मा का अंश होने से सद्भाव से रहित कोई नहीं हो सकता और शरीर के साथ अहंता-ममता रखते हुए दुर्भाव से सर्वथा रहित कोई नहीं हो सकता। दुर्भावों के आने पर भी सद्भाव का बीज कभी नष्ट नहीं होता; क्योंकि सद्भाव ‘सत्’ है और सत् का कभी अभाव नहीं होता- ‘नाभावो विद्यते सतः’।[1] इसके विपरीत दुर्भाव कुसंग से उत्पन्न होने वाले हैं और उत्पन्न होने वाली वस्तु नित्य नहीं होती- ‘नासतो विद्यते भावः’।[1] मनुष्यों की सद्भाव या दुर्भाव की मुख्यता को लेकर ही प्रवृत्ति होती है। जब सद्भाव की मुख्यता होती है, तब वह सदाचार करता है और जब दुर्भाव की मुख्यता होती है, तब वह सदाचार करता है और जब दुर्भाव की मुख्यता होती है, तब वह दुराचार करता है। तात्पर्य है कि जिसका उद्देश्य परमात्मप्राप्ति का हो जाता है, उसमें सद्भाव की मुख्यता हो जाती है और दुर्भाव मिटने लगते हैं और जिसका उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रह हो जाता है, उसमें दुर्भाव की मुख्यता हो जाती है और सद्भाव छिपने लगते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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