श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
जड को और आसुरी-संपत्ति को स्वयं (चेतन) ने स्वीकार किया है। जड में यह ताकत नहीं है कि वह स्वयं के साथ स्थिर रह जाए। जड में तो हरदम परिवर्तन होता रहता है। चेतन उसको न पकड़े, तो वह अपने-आप छूट जाएगा। कारण कि चेतन में कभी विकार नहीं होता। वह सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। पर असत् प्रकृति नित्य-निरंतर, हरदम बदलती रहती है। वह कभी एकरूप रह ही नहीं सकती। चेतन ने प्रकृति के साथ संबंध स्वीकार कर लिया। उस संबंध की सत्ता यह ‘मैं’ और ‘मेरे’- रूप से स्वीकार कर लेता है। अतः जड का संबंध और उससे पैदा होने वाली आसुरी संपत्ति आगन्तुक है। यदि यह स्वयं में होती तो, इसका कभी नाश नहीं होता; क्योंकि स्वयं का कभी नाश नहीं होता और आसुरी-संपत्ति के त्याग की बात ही नहीं होती। अनित्य होने पर भी चेतन के संबंध से यह नित्य दीखने लगती है। अविनाशी के संबध से विनाशी भी अविनाशी की तरह दीखने लगता है। इसलिए जिस मनुष्य में आसुरी-संपत्ति होती है, वह आसुरी-संपत्ति का त्याग कर सकता है, और कल्याण का आचरण करके परमात्मा को प्राप्त हो सकता है।[1]
परमात्मा के सम्मुख होते ही आसुरी-संपत्ति मिटने लगती है-
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ।।[2]
कारण कि ‘जन्म कोटि अघ’ प्रकृति से संबंध स्वीकार करने से ही हुए हैं। प्रकृति को स्वीकार न करें, तो फिर कैसे जन्म-मरण होगा? जन्म-मरण में कारण प्रकृति से संबंध ही है- ‘कारणं गुणसंऽगोस्य सदसद्योनिजन्मसु’।[3] परंतु जीवात्मा प्रकृति की क्रिया को अपने में मान लेता है, और प्रकृति के कार्य शरीर में मैं-मेरापन कर लेता है, जिससे जन्मता-मरता रहता है। वास्तव में यह कर्ता भी नहीं है और लिप्त भी नहीं है- ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’।[4]
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