श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
पुरुष जो गहने आदि खरीदता है, वह स्त्री के संबंध से ही (स्त्री के लिए) खरीदता है, नहीं तो उसे अपने लिए गहने आदि की आवश्यकता नहीं है। ऐसे ही जड-अंश के संबंध से ही चेतन में जड की इच्छा और जड का भोग होता है। जड का भोग अंश से ही होता है, पर जड से तादात्म्य होने से भोग का परिणाम केवल जड में नहीं हो सकता अर्थात सुख-दुःख का भोक्ता केवल जड-अंश नहीं बन सकता। परिणाम का ज्ञाता चेतन ही भोक्ता बनता है। जितनी क्रियाएँ होती हैं, सब प्रकृति में होती हैं[3], पर तादात्म्य के कारण चेतन उन्हें अपने में मान लेता है कि मैं कर्ता हूँ। तादात्म्य में चेतन (परमात्मा) की इच्छा में चेतन की मुख्यता और जड (संसार) की इच्छा में जड की मुख्यता रहती है। जब चेतन की मुख्यता रहती है, तब दैवी-संपत्ति आती है और जब जड की मुख्यता रहती है, तब आसुरी-संपत्ति आती है। जड से तादाम्य रहने पर भी सत्, चित् और आनंद की इच्छा चेतन में ही रहती है। संसार की ऐसी कोई इच्छा नहीं है, जो इन तीन (सदा रहना, सब कुछ जानना और सदा सुखी रहना) इच्छाओं में सम्मिलित न हो। इससे गलती यह होती है कि इन इच्छाओं की पूर्ति जड (संसार) के द्वारा करना चाहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 13:20
- ↑ गीता 13:21
- ↑ 3।27; 13।29
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