श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
इस तरह दैवी संपत्ति के जितने भी गुम हैं, सबके विषय में ऐसी ही बात है। वे तो नित्य रहने वाले और स्वाभाविक हैं। केवल नाशवान के संग का त्याग करना है। नाशवान संग अनित्य और अस्वाभाविक है। आसुरी-संपत्ति आगन्तुक है। दुर्गुण-दुराचार बिलकुल ही आगन्तुक हैं। कोई आदमी प्रसन्न रहता है, तो लोग ऐसा नहीं कहते कि तुम प्रसन्न क्यों रहते हो? पर कोई आदमी दुःखी रहता है, तब कहते हैं कि दुःखी क्यों रहते हो? क्योंकि प्रसन्नता स्वाभाविक है और दुःख अस्वाभाविक (आगन्तुक) है। इसलिए अच्छे आचरण करने वाले को कोई नहीं कहता कि तुम अच्छे आचरण क्यों करते हो? पर बुरे आचरण वाले को सब कहते हैं कि तुम बुरे आचरण क्यों करते हो? अतः सद्गुण-सदाचार स्वतः रहते हैं और दुर्गुण-दुराचार संग से आते हैं, इसलिए आगन्तुक हैं। अर्जुन में दैवी संपत्ति विशेषता से थी। जब उनमें कायरता आ गयी, तब भगवान ने आश्चर्य से कहा कि तेरे में यह कायरता कहाँ से आ गयी?[1] तात्पर्य यह है कि अर्जुन में यह दोष स्वाभाविक नहीं, आगन्तुक है। पहले उनमें यह दोष था नहीं। अर्जुन आगे कहते हैं कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो, ऐसी बात कहिए।[2] युद्ध के प्रसंग में भी अर्जुन में ‘मेरा कल्याण हो जाए’ यह इच्छा है। तो इससे प्रतीत होता है कि अर्जुन के स्वभाव में पहले से ही दैवी-संपत्ति थी, नहीं तो उर्वशी- जैसी अप्सरा को एकदम ठुकरा देना कोई मामूली आदमी की बात नहीं थी। वे अर्जुन विचार करते हैं कि मेरे को दैवी संपत्ति प्राप्त है कि नहीं? मैं उसका अधिकारी हूँ कि नहीं? अतः उसे आश्वासन देते हुए भगवान कहते हैं कि तू शोक मत कर; तू दैवी-संपत्ति को प्राप्त है- ‘मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव’।[3] सत् (चेतन) और असत्- (जड) के तादात्म्य से ‘अहम्’- भाव पैदा होता है। मनुष्य शुभ या अशुभ, कोई भी काम करता है, तो अपने अहंकार को लेकर करता है। जब वह परमात्मा की तरफ चलता है, तब उसके अहंभाव में सत्-अंश की मुख्यता होती है और जब संसार की तरफ चलता है, तब उसके अहंभाव में नाशवान् असत्-अंश की मुख्यता होती है। सत्-अंश की मुख्यता होने से वह दैवी संपत्ति का अधिकारी कहा जाता है और असत्-अशं की मुख्यता होने से वह उसका अनधिकारी कहा जाता है। असत्-अंश को मिटाने के लिए ही मानव शरीर मिला है। अतः मनुष्य निर्बल नहीं है, पराधीन नहीं है, प्रत्युत यह सर्वथा सबल है, स्वाधीन है। नाशवान्, असत्-अंश तो सबका मिटता ही रहता है, पर वह उससे अपने संबंध बनाए रखता है। यह भूल होती है। नाशवान् से संबंध बनाए रखने के कारण आसुरी संपत्ति का सर्वथा अभाव नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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