श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
इसमें भी एक खास बात है। अर्जुन कहते हैं कि हमने जो युद्ध करने का निश्चय कर लिया है, यह भी एक महान पाप है- ‘अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्’।[1] युद्ध-क्षेत्र में भी भगवान से बार-बार अपने कल्याण की बात पूछते हैं- ‘यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’;[2] ‘तदेकं वद निश्चित्य चेन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्’;[3] ‘यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्’।[4] यह उनमें दैवी-संपत्ति होने के कारण ही है। इसके विपरीत जिनमें आसुरी-संपत्ति है, ऐसे दुर्योधन आदि में राज्य और धन का इतना लोभ है कि वे कुटुम्ब के नाश से होने वाले पाप की तरफ देखते ही नहीं।[5] इस प्रकार अर्जुन में दैवी-संपत्ति आरंभी से ही थी। मोहरूप आसुरी-संपत्ति तो उनमें आगन्तुक रुप आयी थी, जो आगे चलकर भगवान की कृपा से नष्ट हो गयी- ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत’।[6] इसीलिए यहाँ भगवान कहते हैं कि ‘भैया अर्जुन! तू चिन्ता मत कर; क्योंकि तू दैवी-संपत्ति को प्राप्ति हो।’ अर्जुन को अपने में दैवी-संपत्ति नहीं दीखती, इसलिए भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तुम्हारे में दैवी-संपत्ति प्रकट है। कारण कि जो श्रेष्ठ पुरुष होते हैं, उनको अपने में अच्छे गुण नहीं दीखते और अवगुण उनमें रहते नहीं। अपने में गुण न दीखने का कारण यह है कि उनकी गुणों के साथ अभिन्नता होती है। जैसे आँख में लगा हुआ अंजन आँख को नहीं दीखता; क्योंकि वह आँख के साथ एक हो जाता है, ऐसे ही दैवी-संपत्ति के साथ अभिन्नता होने पर गुण नहीं दीखते। जब तक अपने में गुण दीखते हैं, तब तक गुणों के साथ एकता नहीं हुई है। गुण तभी दीखते हैं, जब वे अपने से कुछ दूर होते हैं। अतः भगवान अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि तुम्हारे में दैवी-संपत्ति स्वाभाविक है, भले ही वह तुम्हें न दीखे; इसलिए तुम चिन्ता मत करो। भगवान ने कृपा करके मानव शरीर दिया है, तो उसकी सफलता के लिए अपने भावों और आचरणों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। कारण कि शरीर का कुछ पता नहीं कि कब प्राण चले जाएँ। ऐसी अवस्था में जल्दी से जल्दी अपना उद्धार करने के लिए दैवी संपत्ति का आश्रय और आसुरी संपत्ति का त्याग करना बहुत आवश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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