श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
दैवी और आसुरी संपत्ति सब प्राणियों में पायी जाती है।[1] ऐसा कोई भी साधारण प्राणी नहीं है, जिसमें ये दोनों संपत्तियाँ न पायी जाती हों। हाँ, इसमें जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुष तो आसुरी संपत्ति से सर्वथा रहित हो जाते हैं[2], पर दैवी-संपत्ति से रहित कभी को हो ही नहीं सकता। कारण कि जीव ‘देव’ अर्थात परमात्मा का सनातन अंश है। परमात्मा का अंश हे से इसमें दैवी-संपत्ति दब सी जाती है, मिटती नहीं; क्योंकि सत्-वस्तु कभी मिट नहीं सकती। इसलिए कोई भी मनुष्य सर्वथा दुर्गुणी-दुराचारी नहीं हो सकता, सर्वथा निर्दयी नहीं हो सकता, सर्वथा असत्यवादी नहीं हो सकता, सर्वथा व्यभिचारी नहीं हो सकता। जितने भी दुर्गुण-दुराचार हैं, वे किसी भी व्यक्ति में सर्वथा हो ही नहीं सकते। कोई भी, कभी भी कितना ही दुर्गुणी-दुराचारी क्यों न हो, उसके साथ आंशिक सद्गुण-सदाचार रहेंगे ही। दैवी-संपत्ति प्रकट होने पर आसुरी-संपत्ति मिट जाती है; क्योंकि दैवी-संपत्ति परमात्मा की होने से अविनाशी है और आसुरी-संपत्ति संसार की होने से नाशवान है। सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा का अंश होने से ‘मैं सदा जीता रहूँ अर्थात कभी मरूँ नहीं; मैं सब कुछ जान लूँ अर्थात कभी अज्ञान न रहूँ; मैं सर्वदा सुखी रहूँ अर्थात कभी दुःखी न होऊँ’- इस तरह सत्-चित्-आनंद की इच्छा प्राणिमात्र में रहती है। पर उससे गलती यह होती है कि ‘मैं रहूँ तो शरीर सहित रहूँ; मैं जानकार बनूँ तो बुद्धि को लेकर जानकार बनूँ; मैं सुख लूँ तो इंद्रियों और शरीर को लेकर सुख लूँ’- इस तरह इन इच्छाओं को नाशवान संसार से ही पूरी करना चाहता है। इस प्रकार प्राणों का मोह होने से आसुरी-संपत्ति रहती ही है।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 16:6
- ↑ जीवन्मुक्त महापुरुष नाशवान से असंग होकर अविनाशी परमात्मा में स्थित हो जाते हैं। इसलिए उनमें जीने की आशा और मरने का भय नहीं रहता। सत्स्वरूप परमात्मा में स्थित होने से उनमें सद्गुण-सदाचार स्वतः स्वाभाविक रहते हैं। वे सिद्ध महापुरुष तो दैवी-संपत्ति से ऊपर उठे रहते हैं। अतः उनमें दैवी-संपत्ति के गुण स्वाभाविक होते हैं, जो साधकों के लिए आदर्श होते हैं।
- ↑ देहाभिमान में ‘मैं सुखपूर्वक जीता रहूँ’ इस प्रकार प्राणों का मोह रहता है। इसलिए देहाभिमान से आसुरी-संपत्ति पैदा होती है। अत- गीता में ‘देहवद्भिः’ गीता 11:5, ‘देहिनम्’ (3।40; 14।5,7) आदि पदों से जिन देहाभिमानियों की बात आयी है, उन्हें आसुरी-संपत्ति के ही अंतर्गत समझना चाहिए।
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