श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
तात्पर्य यह है कि साधक को अपने साधन में जो कमियाँ दिखती हैं, उनको तो वह दूर करता रहता है, पर कमियों के कारण उसके अन्त:करण में नम्रता के साथ एक निराशा सी रहती है कि मेरे में अच्छे गुण कहाँ हैं, जिससे साध्य की प्राप्ति हो! साधक की इस निराशा को दूर करने के लिए भगवान अर्जुन को साधक मात्र का प्रतिनिधि बनाकर उसे यह आश्वासन देते हैं कि तुम साधन और साध्य के विषय में चिन्ता शोक मत करो, निराशा मत होओ। दैवी सम्पत्ति वाले पुरुषों का यह स्वभाव होता है कि उनके सामने अनुकूल या प्रतिकूल कोई भी परिस्थिति, घटना आए, उनकी दृष्टि हमेशा अपने कल्याण की तरफ ही रहती है। युद्ध के मौके पर जब भगवान ने अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा किया, तब उन सेनाओं में खड़े अपने कुटुम्बियों को देखकर अर्जुन में कौटुम्बिक स्नेहरूपी मोह पैदा हो गया और वे करुणा तथा शोक से व्याकुल होकर युद्धरूप कर्तव्य से हटने लगे। उन्हें विचार हुआ कि युद्ध में कुटुम्बियों को मारने से मुझे पाप ही लगेगा, जिससे मेरे कल्याण में बाधा लगेगी। इन्हें मारने से हमें नाशवान राज्य और सुख की प्राप्ति तो हो जाएगी, पर उससे श्रेय (कल्याण) की प्राप्ति रुक जाएगी। इस प्रकार अर्जुन में कुटुम्ब का मोह और पाप (अन्याय, अधर्म) का भय- दोनों एक साथ आ जाते हैं। उनमें जो कुटुम्ब का मोह है, वह आसुरी-संपत्ति है और पाप के कारण अपने कल्याण में बाधा लग जाने का जो भय है, वह दैवी-संपत्ति है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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