श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
वे तात्कालिक संयोगजन्य सुख को ही सुख मानते हैं और शरीर तथा इंद्रियों के प्रतिकूल संयोग को ही दुःख मानते हैं। इसलिए वे उद्योग तो सुख के लिए ही करते हैं, पर परिणाम में उनको पहले से भी अधिक दुःख मिलता है।[1] फिर भी उनको चेत नहीं होता कि इसका हमारे लिए नतीजा क्या होगा? वे तो मान-बड़ाई, सुख-आराम, धन-संपत्ति आदि के प्रलोभन में आकर न करने लायक काम भी करने लग जाते हैं, जिनका नतीजा उनके लिए तथा दुनिया के लिए भी बड़ा अहितकारक होता है। ‘अभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम्’- हे पार्थ! ये सब आसुरी संपत्ति[2] को प्राप्त हुए मनुष्यों के लक्षण हैं। मरणधर्मा शरीर के साथ एकता मानकर ‘मैं कभी मरूँ नहीं; सदा जीता रहूँ और सुख भोगता रहूँ’- ऐसी इच्छा वाले मनुष्य के अंतःकरण में ये लक्षण होते हैं। अठारहवें अध्याय के चालीसवें श्लोक में भगवान ने कहा है कि कोई भी साधारण प्राणी प्रकृति के गुणों के संबंध से सर्वथा रहित नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक जीव परमात्मा का अंश होते हुए भी प्रकृति के साथ संबंध लेकर ही पैदा होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कर्माण्यारभरमाणानां दुःखहत्यै सुखाय च। पश्येत् पाकविपर्यासं मिथुनीचारिणां नृणाम् ।। (श्रीमद्भा. 11।3।18)
राजन! स्त्री-पुरुष-संबंध आदि बंधनों से बँधे हुए पुरुष तो सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति के लिए कर्म करते रहते हैं। परंतु जो पुरुष माया से तरना चाहता है, उसको विचार करना चाहिए कि उसके कर्मों का फल किस प्रकार उलटा होता जाता है। वे सुख के बदले दुःख पाते हैं और दुःख दूर होने के बदले उनका दुःख बढ़ता जाता है। - ↑ यहाँ ‘आसुरी’ शब्द में देवताओं का विरोधवाचक ‘नञ्’ समास नहीं है, प्रत्युत ‘असुषु प्राणेषु रमन्ते इति असुराः’ के अनुसार जो मनुष्य केवल इंद्रियों और प्राणों का पोषण करने में ही लगे हुए हैं। अर्थात जो केवल संयोगजन्य सुख में ही आसक्त हैं, उन मनुष्यों का वाचक यहाँ ‘असुर’ शब्द है। तात्पर्य यह है कि जिनका उद्देश्य परमात्मा को प्राप्त करना नहीं है और जो शरीर धारण करके केवल भोग भोगना चाहते हैं, वे असुर हैं। उन असुरों की संपत्ति का नाम ‘आसुरी-संपत्ति’ है।
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