श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
क्रोध स्वयं को ही जलाता है।[1] क्रोधी व्यक्ति की संसार में अच्छी ख्याति नहीं होती, प्रत्युत निन्दा ही होती है। खास अपने घर के आदमी भी क्रोधी से डरते हैं। इसी अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में भगवान ने क्रोध को नरकों का दरवाजा बताया है। जब मनुष्य के स्वार्थ और अभिमान में बाधा पड़ती है, तब क्रोध पैदा होता है। फिर क्रोध से सम्मोह, सम्मोह से स्मृतिविभ्रम, स्मृतिविभ्रम से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से मनुष्य का पतन हो जाता है।[2] ‘पारुष्यम्’- कठोरता का नाम ‘पारुष्य’ है। यह कई प्रकार का होता है; जैसे- शरीर से अकड़ कर चलता है, टेढ़े चलना- यह शारीरिक पारुष्य है। नेत्रों से टेढ़ा-टेढ़ा देखना- यह नेत्रों का पारुष्य है। वाणी से कठोर बोलना, जिससे दूसरे भयभीत हो जाएं- यह वाणी का पारुष्य है। दूसरों पर आफत, संकट, दुःख आने पर भी उनकी सहायता न करके राजी होना आदि जो कठोर भाव होते हैं, यह हृदय का पारुष्य है। जो शरीर और प्राणी के साथ एक हो गए हैं, ऐसे मनुष्यों को यदि दूसरों की क्रिया, वाणी बुरी लगती है, तो उसके बदले में वे उनको कठोर वचन सुनाते हैं, दुःख देते हैं और स्वयं राजी होकर कहते हैं कि ‘आपने देखा कि नहीं? मैं उसके साथ ऐसा कड़ा व्यवहार किया कि उसके दाँत खट्टे कर दिए। अब वह मेरे साथ बोल सकता है क्या है?’ यह सब व्यवहार का पारुष्य है। स्वार्थबुद्धि की अधिकता रहने के कारण मनुष्य अपना मतलब सिद्ध करने के लिए, अपनी क्रियाओं से दूसरों को कष्ट होगा, उन पर कोई आफत आएगी- इन बातों पर विचार ही नहीं कर सकता। हृदय में कठोर भाव होने से वह केवल अपना मतलब देखता है और उसके मन, वाणी, शरीर, बर्ताव आदि सब जगह कठोरता रहती है। स्वार्थभाव की बहुत ज्यादा वृत्ति बढ़ती है, तो वह हिंसा आदि भी कर बैठता है, जिससे उसके स्वभाव में स्वाभाविक ही क्रूरता आ जाती है। क्रूरता आने पर हृदय में सौम्यता बिलकुल नहीं रहती। सौम्यता न रहने से उसके बर्ताव में, लेन-देन में स्वाभाविक ही कठोरता रहती है। इसलिए वह केवल दूसरों से रुपए ऐंठने, दूसरों को दुःख देने आदि में लगा रहता है। इनके परिणाम में मुझे सुख या दुःख- इसका वह विचार ही नहीं कर सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणां देहस्थितो देहविनाशनाय। यथास्थितः काष्ठगतो हि वहिः स एव वह्रिर्दहते शरीरम् ।।
‘क्रोध ही मनुष्य का प्रथम शत्रु है, जो देह में स्थित होकर देह का ही विनाश करता है। जैसे लकड़ी में स्थित अग्नि लकड़ी को ही जलाती है, ऐसे ही देह में स्थित क्रोधरूपी अग्नि देह को ही जलाती है।’ - ↑ गीता 2।62-63
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