श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
‘अभिमानः’- अहंता वाली चीजों को लेकर अर्थात स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर को लेकर अपने में जो बड़प्पन का अनुभव होता है, उसका नाम ‘अभिमान’ है।[1] जैसे- मैं जाति-पाँति में कुलीन हूँ; मैं वर्ण-आश्रम में ऊँचा हूँ; हमारी जाति में प्रधानता है; गाँवभर में हमारी बात चलती है अर्थात हम जो कह देंगे, उसको सभी मानेंगे; हम जिसको सहारा देंगे, उस आदमी से विरुद्ध चलने में सभी लोग भयभीत होंगे और हम जिसके विरोधी होंगे, उसका साथ देने में भी सभी लोग भयभीत होंगे; राजदरबार में भी हमारा आदर है, इसलिए हम जो कह देंगे, उसे कोई टालेगा नहीं; हम न्याय-अन्याय जो कुछ भी करेंगे, उसको कोई टाल नहीं सकता, उसका कोई विरोध नहीं कर सकता; मैं बड़ा विद्वान हूँ, मैं अणिमा, महिमा, गरिमा आदि सिद्धियों को जानता हूँ, इसलिए सारे संसार को उथल-पुथल कर सकता हूँ, आदि-आदि। ‘क्रोधः’- दूसरों का अनिष्ट करने के लिए अंतःकरण में जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है, उसका नाम ‘क्रोध’ है। मनुष्य के स्वभाव के विपरीत कोई काम करता है तो उसका अनिष्ट करने के लिए अंतःकरण में उत्तेजना होकर जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है, वह क्रोध है। क्रोध और क्षोभ में अंतर है। बच्चा उद्दण्डता करता है, कहना नहीं मानता, तो माता-पिता उत्तेजना में आकर उसको ताड़ना करते हैं- यह उनका ‘क्षोभ’ (हृदय की हलचल) है, क्रोध नहीं। कारण कि उनमें बच्चे का अनिष्ट करने की भावना होती ही नहीं, प्रत्युत बच्चे के हित की भावना होती है। परंतु यदि उत्तेजना में आकर दूसरे का अनिष्ट, अहित करके उसे दुःख देने में सुख का अनुभव होता है, तो यह ‘क्रोध’ है। आसुरी प्रकृति वालों में यही क्रोध होता है। क्रोध के वशीभूत होकर मनुष्य न करने योग्य काम भी कर बैठता है, जिसके फलस्वरूप स्वयं उसको पश्चाताप करना पड़ता है। क्रोधी व्यक्ति उत्तेजना में आकर दूसरों का अपकार तो करता है, पर क्रोध से स्वयं उसका अपकार कम नहीं होता; क्योंकि अपना अनिष्ट किए बिना क्रोधी व्यक्ति दूसरे का अनिष्ट कर ही नहीं सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जहाँ अभिमान और दर्प- दोनों में से कोई एक आता है, वहाँ अभिमान के ही अंतर्गत दर्प और दर्प के ही अंतर्गत अभिमान आ जाता है। परंतु जहाँ ये दोनों एक साथ स्वतंत्र रूप से आते हैं, वहाँ दोनों में थोड़ा अंतर हो जाता है। ‘ममता’ की चीजों को लेकर ‘दर्प’ और ‘अहंता’ की चीजों को लेकर ‘अभिमान’ कहा जाता है अर्थात बाहरी चीजों को लेकर अपने में जो बड़प्पन दीखता है, वह ‘दर्प’ है और विद्या, बुद्धि आदि भीतरी चीजों को लेकर अपने में जो बड़पन्न दीखता है, वह ‘अभिमान’ है।
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