श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
अर्थ- तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, वैरभाव का न रहना और मान को न चाहना, हे भरतवंशी अर्जुन! ये सभी दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं। व्याख्या- ‘तेजः’- महापुरुषों का संग मिलने पर उनके प्रभाव से प्रभावित होकर साधारण पुरुष भी दुर्गुण दुराचारों का त्याग करके सद्गुण-सदाचारों में लग जाते हैं। महापुरुषों की उस शक्ति को ही यहाँ ‘तेज’ कहा है। ऐसे तो क्रोधी आदमी को देखकर भी लोगों को उसके स्वभाव के विरुद्ध काम करने में भय लगता है; परंतु यह क्रोध रूप दोष का तेज है। साधक में दैवी संपत्ति के गुण प्रकट होने से उसको देखकर दूसरे लोगों के भीतर स्वाभाविक और सौम्य भाव आते हैं अर्थात उस साधक के सामने दूसरे लोग दुराचार करने में लज्जित होते हैं, हिचकते हैं और अनायास ही सद्भावपूर्वक सदाचार करने लग जाते हैं। यही उन दैवी-संपत्ति वालों का तेज (प्रभाव) है। ‘क्षमा’- बिना कारण अपराध करने वाले को दंड देने की सामर्थ्य रहते हुए भी उसके अपराध को सह लेना और उसको माफ कर देना ‘क्षमा’[1] है। यह क्षमा मोह-ममता, भय और स्वार्थ को लेकर भी की जाती है; जैसे-पुत्र के अपराध कर देने पर पिता उसे क्षमा कर देता है, तो यह क्षमा मोह-ममता को लेकर होने से शुद्ध नहीं है। इसी प्रकार किसी बलवान एवं क्रूर व्यक्ति के द्वारा हमारा अपराध किए जाने पर हम भयवश उसके सामने कुछ नहीं बोलते, तो यह क्षमा भय को लेकर है। हमारी धन संपत्ति की जाँच पड़ताल करने के लिए इन्सपेक्टर आता है, तो वह हमें धमकाता है, अनुचित भी बोलता है और उसका ठहरना हमें बुरा भी लगता है तो भी स्वार्थ-हानि के भय से हम उसके सामने कुछ नहीं बोलते, तो यह क्षमा स्वार्थ को लेकर है। पर ऐसी क्षमा वास्तविक क्षमा नहीं है। वास्तविक क्षमा स्वार्थ को लेकर है। पर ऐसी क्षमा वास्तविक क्षमा वही है, जिसमें ‘हमारा अनिष्ट करने वाले को यहाँ और परलोक में भी किसी प्रकार का दंड न मिले’- ऐसा भाव रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ क्षमा और अक्रोध में क्या अंतर है? क्षमा में जिसने अपराध किया है, उस पर विशेषता से यह दृष्टि रहती है कि उसको कभी किसी प्रकार का दंड न हो और अक्रोध में अपनी तरफ रहती है कि हमारे में क्रोध न हो, जलन न हो, किसी प्रकार की हलचल न हो। यद्यपि क्षमा के अंतर्गत अक्रोध भी आ जाता है, तथापि क्षमाशील कह देने पर उसके लिए क्रोधरहित कहने की आवश्यकता नहीं है, जबकि क्रोधरहित कहने पर यह क्षमाशील है, ऐसा कहने की आवश्यकता रह जाती है। अतः ये दोनों गुण (क्षमा और अक्रोध) भिन्न-भिन्न हैं।
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