श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
जब साधक अपनी अहंता बदल देता है कि मैं सेवक हूँ, मैं जिज्ञासु हूँ, मैं भक्त हूँ, तब उसे अपनी अहंता के विरुद्ध क्रिया करने में स्वाभाविक ही लज्जा आती है। इसलिए पारमार्थिक उद्देश्य रखने वाले प्रत्येक साधक को अपनी अहंता ‘मैं साधक हूँ, मैं सेवक हूँ, मैं जिज्ञासु हूँ, मैं भगवद्भक्त हूँ’- इस प्रकार से यथा रुचि बदल लेनी चाहिए, जिससे वह साधन-विरोधी कर्मों से बचकर अपने उद्देश्य को जल्दी प्राप्त कर सकता है। ‘अचापलम्’- कोई भी कार्य करने में चपलता का अर्थात उतावलापन का न होना ‘अचापल’ है। चपलता (चंचलता) होने से काम जल्दी होता है, ऐसी बात नहीं है। सात्त्विक मनुष्य सब काम धैर्यपूर्वक करता है; अतः उसका काम सुचारू रूप से और ठीक समय पर हो जाता है। जब कार्य ठीक हो जाता है, तब उसके अंतःकरण में हलचल, चिंता नहीं होती। चपलता न होने से कार्य में दीर्घसूत्र का दोष भी नहीं आता, प्रत्युत कार्य में तत्परता आती है, जिससे सब काम सुचारू रूप से होते हैं। अपने कर्तव्य कर्मों को करने के अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा न होने से उसका चित्त विक्षिप्त और चंचल नहीं होता।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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