श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
‘धृतिः’- किसी भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति में विचलित न होकर अपनी स्थिति में कायम रहने की शक्ति का नाम ‘धृति’ (धैर्य) है।[1] वृत्तियाँ सात्त्विक होती हैं धैर्य ठीक रहता है और वृत्तियाँ राजसी-तामसी होती हैं तो धैर्य वैसा नहीं रहता। जैसे बद्रीनारायण के रास्ते पर चलने वाले के लिए कभी गरमी, चढ़ाई आदि प्रतिकूलताएँ आती हैं और कभी ठंडक, उतराई आदि अनुकूलताएं आती हैं, पर चलने वाले को उन प्रतिकूलताओं और अनुकूलताओं को देखकर ठहरना नहीं है, प्रत्युत ‘हमें तो बद्रीनारायण पहुँचना है’- इस उद्देश्य से धैर्य और तत्परतापूर्वक चलते रहना है। ऐसे ही साधकों को अच्छी मंदी वृत्तियों और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों की ओर देखना ही नहीं चाहिए। इनमें उसे धीरज धारण करना चाहिए; क्योंकि जो अपना उद्देश्य सिद्ध करना चाहता है, वह मार्ग में आने वाले सुख और दुःख को नहीं देखता- ‘शौचम्’- ब्रह्म शुद्धि एवं अंतः शुद्धि का नाम ‘शौच’ है।[3] परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य रखने वाला साधक ब्रह्मशुद्धि का भी खयाल रखता है; क्योंकि बाह्यशुद्धि रखने से अंतःकरण की शुद्धि स्वतः होती है और अंतःकरण शुद्ध होने पर बाह्य-अशुद्धि उसको सुहाती नहीं। इस विषय पतंजलि महाराज ने कहा है- ‘शौच से साधक की अपने शरीर में घृणा अर्थात अपवित्र-बुद्धि और दूसरों से संसर्ग न करने की इच्छा होती है।’
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 18:33
- ↑ भर्तृहरिनीतिशतक
- ↑ यहाँ ‘शौचम्’ पद से ब्रह्मशुद्धि ही लेनी चाहिए; क्योंकि अंतशुद्धि ‘सत्त्वसंशुद्धिः’ पद से इसी अध्याय के पहले श्लोक में आ चुकी है।
- ↑ योगदर्शन 2।40
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