श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
(2) पंद्रहवें अध्याय में भगवान ने पहले क्षर- संसार-वृक्ष का वर्णन किया। फिर उसका छेदन करके परमपुरुष परमात्मा के शरण होने अर्थात संसार से अपनापन हटाकर एकमात्र परमात्मा को अपना मानने की प्रेरणा की। फिर अक्षर-जीवात्मा को अपना सनातन अंश बताते हुए उसके स्वरूप का वर्णन किया। उसके बाद भगवान ने (बारहवें से पंद्रहवें श्लोक तक) अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए बताया कि सूर्य, चन्द्र और अग्नि में मेरा ही तेज है; मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से चराचर सब प्राणियों को धारण करता हूँ; मैं ही अमृतमय चंद्र के रूप से संपूर्ण वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ; वैश्वार अग्नि के रूप में मैं ही प्राणियों के शरीर में स्थित होकर उनके द्वारा खाये हुए अन्न को पचाता हूँ; मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामी रूप से विद्यमान हूँ; मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (भ्रम, संशय आदि दोषों का नाश) होता है; वेदादि सब शास्त्रों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ; और वेदों के अंतिम सिद्धांत का निर्णय करने वाला तथा वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ। इस प्रकार अपना प्रभाव करने के बाद इस श्लोक में भगवान यह गुह्यतम रहस्य प्रकट करते हैं कि जिसका यह सब प्रभाव है, वह (क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम) ‘पुरुषोत्तम’ मैं (साक्षात साकाररूप से प्रकट श्रीकृष्ण) ही हूँ। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन पर बहुत विशेष कृपा करके ही अपने रहस्य की बात अपने मुख से प्रकट की है; जैसे- कोई पिता अपने पुत्र के सामने अपनी गुप्त संपत्ति प्रकट कर दे अथवा कोई आदमी किसी भूले-भटके मनुष्य को अपना परिचय दे दे कि जिसके लिए तू भटक रहा है, वह मैं ही हूँ और तेरे सामने बैठा हूँ! संबंध- चौदहवें अध्याय के छब्बीसवें श्लोक में भगवान ने जिस अव्यभिचारिणी भक्ति की बात कही थी और जिसको प्राप्त कराने के लिए इस पंद्रहवें अध्याय में संसार, जीव और परमात्मा का विस्तृत विवेचन किया गया, उसका अब आगे के श्लोक में उपसंहार करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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