श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
व्याख्या- ‘यो मामेवमसम्मूढः’- जीवात्मा परमात्मा का सनातन अंश है। अतः अपने अंशी परमात्मा के वास्तविक संबंध (जो सदा से ही है) का अनुभव करना ही उसका असम्मूढ़ (मोह से रहित) होना है। संसार या परमात्मा को तत्त्व से जानने में मोह (मूढ़ता) ही बाधक है। किसी वस्तु की वास्तविकता का ज्ञान तभी हो सकता है, जब उस वस्तु से राग या द्वेषपूर्वक माना गया कोई संबंध न हो। नाशवान पदार्थों से राग-द्वेषपूर्वक संबंध मानना ही मोह है। संसार को तत्त्व से जानते ही परमात्मा से अपनी अभिन्नता का अनुभव हो जाता है और परमात्मा को तत्त्व से जानते ही संसार से अपनी भिन्नता का अनुभव हो जाता है। तात्पर्य है कि संसार को तत्त्व से जानने से संसार से माने हुए संबंध का विच्छेद हो जाता है और परमात्मा को तत्त्व से जानने से परमात्मा से वास्तविक संबंध का अनुभव हो जाता है। संसार से अपना संबंध मानना ही भक्ति में व्यभिचार-दोष है। इस व्यभिचार-दोष से सर्वथा रहित होने में ही उपर्युक्त पदों का भाव समझना चाहिए। ‘जानाति पुरुषोत्तमम्’- जिसकी मूढ़ता सर्वथा नष्ट हो गयी है वही मनुष्य भगवान को ‘पुरुषोत्तम’ जानता है। क्षर से सर्वथा अतीत पुरुषोत्तम (परमपुरुष परमात्मा) को ही सर्वोपरि मानकर उनके सम्मुख हो जाना, केवल उन्हीं को अपना मान लेना ही भगवान को यथार्थरूप से ‘पुरुषोत्तम’ जानना है। संसार में जो कुछ भी प्रभाव देखने-सुनने में आता है, वह सब एक भगवान (पुरुषोत्तम) का ही ऐसा मान लेने से संसार का खिंचाव सर्वथा मिट जाता है। यदि संसार का थोड़ा सा भी खिंचाव रहता है, तो यही समझना चाहिए कि अभी भगवान को दृढ़ता से माना ही नहीं। ‘स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत’- जो भगवान को ‘पुरुषोत्तम’ जान लेता है और इस विषय में जिसके अंतःकरण में कोई विकल्प, भ्रम या संशय नहीं रहता, उस मनुष्य के लिए जानने योग्य कोई तत्त्व शेष नहीं रहता। इसलिए भगवान उसको ‘सर्ववित्’ कहते हैं।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशोति ।। (प्रश्नोपरिषद् 4।11)
‘हे सोम्य। उस अविनाशी परमात्मा को जो कोई जान लेता है, वह सर्वज्ञ है। वह सर्वरूप परमेश्वर में प्रविष्ट हो जाता है।’
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