श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
(1) भौतिक सृष्टि मात्र ‘क्षर’ (नाशवान) है और परमात्मा का सनातन अंश जीवात्मा ‘अक्षर’ (अविनाशी) है। क्षर से अतीत और उत्तम होने पर भी अक्षर ने क्षर से अपना संबंध मान लिया- इससे बढ़कर और कोई दोष, भूल या गलती है ही नहीं। क्षर के साथ यह संबंध केवल माना हुआ है, वास्तव में एक क्षण भी रहने वाला नहीं है। जैसे बाल्यावस्था से अब तक शरीर बिलकुल बदल गया, फिर भी हम कहते हैं कि ‘मैं वही हूँ।’ यह भी हम नहीं बता सकते कि अमुक दिन बाल्यावस्था खत्म हुई और युवावस्था शुरू हुई। कारण कि नदी के प्रवाह की तरह शरीर निरंतर ही बहता रहता है, जबकि अक्षर (जीवात्मा) नदी में स्थित शिला- (चट्टान) की तरह सदा अचल और असंग रहता है। यदि अक्षर भी क्षर की तरह निरंतर परिवर्तनशील और नाशवान होता तो इसकी आफत मिट जाती। परंतु स्वयं (अक्षर) अपरिवर्तनशील और अविनाशी होते हुए भी निरंतर परिवर्तनशील और नाशवान क्षर को पकड़ लेता है- उसको अपना मान लेता है। होता यह है कि अक्षर क्षर को छोड़ता नहीं और क्षर एक क्षण भी ठहरता नहीं। इस आफत को मिटाने का सुगम उपाय है- क्षर (शरीरादि) को क्षर (संसार) की ही सेवा में लगा दिया जाए- उसको संसार-रूपी वाटिका की खाद बना दी जाए। मनुष्य को शरीरादि नाशवान पदार्थ अधिकार करने अथवा अपना मानने के लिए नहीं मिले हैं, प्रत्युत सेवा करने के लिए ही मिले हैं। इन पदार्थों के द्वारा दूसरों की सेवा करने की ही मनुष्य पर जिम्मेवारी है, अपना मानने की बिलकुल जिम्मेवारी नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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