श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः । अर्थ- मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिए लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ। व्याख्या- ‘यस्मात्क्षरमतीतोऽहम्’- इन पदों में भगवान का यह भाव है कि क्षर (प्रकृति) प्रतिक्षण परिवर्तनशील है और मैं नित्य-निरंतर निर्विकार रूप से ज्यों-का-त्यों रहने वाला हूँ। इसलिए मैं क्षर से सर्वथा अतीत हूँ। शरीर से पर (व्यापक, श्रेष्ठ, प्रकाशक, सबल, सूक्ष्म) इंद्रियाँ हैं, इंद्रियों से पर मन है और मन से पर बुद्धि है।[1] इस प्रकार एक दूसरे से पर होते हुए भी शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि एक ही जाति के, जड हैं। परंतु परमात्मतत्त्व इनसे भी अत्यंत पर है; क्योंकि वह जड नहीं है, प्रत्युत चेतन है। ‘अक्षरादपि चोत्तमः’- यद्यपि परमात्मा का अंश होने के कारण जीवात्मा (अक्षर) की परमात्मा से तात्त्विक एकता है, तथापि यहाँ भगवान अपने को जीवात्मा से भी उत्तम बताते हैं। इसके कारण ये हैं- (1) परमात्मा का अंश होने पर भी जीवातामा क्षर (जड प्रकृति) के साथ अपना संबंध मान लेता है[2] और प्रकृति के गुणों से मोहित हो जाता है, जबकि परमात्मा (प्रकृति से अतीत होने के कारण) कभी मोहित नहीं होते।[3] (2) परमात्मा प्रकृति को अपने अधीन करके लोक में आते, अवतार लेते हैं[4], जबकि जीवात्मा प्रकृति के वश में होकर लोक में आता है।[5] (3) परमात्मा सदैव निर्लिप्त रहते हैं,[6] जबकि जीवात्मा को निर्लिप्त होने के लिए साधन करना पड़ता है।[7] भगवान द्वारा अपने को क्षर से ‘अतीत’ और अक्षर से ‘उत्तम’ बताने से यह भाव भी प्रकट होता है कि क्षर और अक्षर- दोनों में भिन्नता है। यदि उन दोनों में भिन्नता न होती, तो भगवान अपने को या तो उन दोनों से ही अतीत बताते या दोनों से ही उत्तम बताते। अतः यह सिद्ध होता है कि जैसे भगवान क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम हैं, ऐसे ही अक्षर भी क्षर से अतीत और उत्तम है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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