श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता के चार अध्यायों में भिन्न-भिन्न रूपों से अपनी विभूतियों का वर्णन किया है- सातवें अध्याय में आठवें श्लोक से बारहवें श्लोक तक सृष्टि के प्रधान-प्रधान पदार्थों में कारण रूप से सत्रह विभूतियों का वर्णन करके भगवान ने अपनी सर्वव्यापकता और सर्वरूपता सिद्ध की है। नवें अध्याय में सोलहवें श्लोक से उन्नीसवें श्लोक तक क्रिया, भाव, पदार्थ आदि में कार्य-कारण से सैंतीस विभूतियों का वर्णन करके भगवान ने अपने को सर्वव्यापक बताया है। दसवें अध्याय का तो नाम ही ‘विभूति योग ’ है। इस अध्याय में चौथे और पाँचवें श्लोक में भगवान ने प्राणियों के भाव के रूप में बीस विभूतियों का और छठे श्लोक में बीसवें श्लोक से उन्तालीवें श्लोक तक भगवान ने बयासी प्रधान विभूतियों का विशेष रूप से वर्णन किया है। इस पंद्रहवें अध्याय में बारहवें श्लोक से पंद्रहवें श्लोक तक भगवान ने अपना प्रभाव बतलाने के लिए तेरह विभूतियों का वर्णन किया है।[1] उपर्युक्त चारों अध्यायों में भिन्न-भिन्न रूप में विभूतियों का वर्णन करने का तात्पर्य यह है कि साधक को ‘वासुदेवः सर्वम्’[2] ‘सब कुछ वासुदेव ही है’ इस तत्त्व का अनुभव हो जाए। इसलिए अपनी विभूतियों का वर्णन करते समय भगवान ने अपनी सर्वव्यापकता को ही विशेष रूप से सिद्ध किया है; जैसे-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस अध्याय में वर्णित तेरह विभूतियाँ इस प्रकार हैं-
(1)सूर्य में स्थित तेज,
(2) चंद्र में स्थित तेज,
(3) अग्नि में स्थित तेज,
(4) पृथ्वी की धारण-शक्ति,
(5) चंद्र की पोषण-शक्ति,
(6) वैश्वानर,
(7) हृदयस्थि अंतर्यामी,
(8) स्मृति,
(9) ज्ञान,
(10) अपोहन,
(11) वेदों द्वारा जानने योग्य,
(12) वेदान्त का कर्ता और
(13) वेदों को जानने वाला। - ↑ गीता 7:19
- ↑ गीता 7:7
- ↑ गीता 9:19
- ↑ गीता 10:8
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