श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
इसी प्रकार इस पंद्रहवें अध्याय में भी अपनी विभूतियों के वर्णन का उपसंहार करते हुए भगवान कहते हैं- ‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः’[2] प्रकाश के अभाव (अंधकार) में कोई वस्तु दिखायी नहीं देती। आँखों से किसी वस्तु को देखने पर पहले प्रकाश दीखता है, उसके बाद वस्तु दीखती है अर्थात हरेक वस्तु प्रकाश के अंतर्गत ही दीखती है; किंतु हमारी दृष्टि प्रकाश पर न जाकर प्रकाशित होने वाली वस्तु पर जाती है। इसी प्रकार यावन्मात्र वस्तु, क्रिया, भाव आदि का ज्ञान एक विलक्षण और अलुप्त प्रकाश- ज्ञान के अंतर्गत होता है, जो सबका प्रकाशक और आधार है। प्रत्येक वस्तु से पहले ज्ञान (स्वयं प्रकाश परमात्मतत्त्व) रहता है। अतः संसार में परमात्म को व्याप्त कहने पर भी वस्तुतः संसार बाद में है और उसका अधिष्ठान परमात्मतत्त्व पहले है अर्थात पहले परमात्मतत्त्व दीखता है, बाद में संसार। परंतु संसार में राग होने के कारण मनुष्य की दृष्टि उसके प्रकाशक (परमात्मतत्त्व) पर नहीं जाती। परमात्मा की सत्ता के बिना संसार की कोई सत्ता नहीं है। परंतु परमात्मसत्ता की तरफ दृष्टि न रहने तथा सांसारिक प्राणी-पदार्थों में राग या सुखासक्ति रहने के कारण उन प्राणी-पदार्थों की पृथक् (स्वतंत्र) सत्ता प्रतीत होने लगती है और परमात्मा की वास्तविक सत्ता (जो तत्त्व से है) नहीं दीखती। यदि संसार में राग या सुखासक्ति का सर्वथा अभाव हो जाए, तो तत्त्व से एक परमात्मसत्ता ही दीखने या अनुभव में आने लगती है। अतः विभूतियों के वर्णन का तात्पर्य यही है कि किसी भी प्राणी-पदार्थ की तरफ दृष्टि जाने पर साधक को एकमात्र भगवान की स्मृति होनी चाहिए अर्थात उसे प्रत्येक प्राणी-पदार्थ में भगवान को ही देखना चाहिए।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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