श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
जानने योग्य एकमात्र परमात्मा ही हैं, जिनको जान लेने पर फिर कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता। परमात्मा को जाने बिना संसार को कितना ही क्यों न जान लें, जानकारी कभी पूरी नहीं होती, सदा अधूरी ही रहती है।[1] अर्जुन में भगवान को जानने की विशेष जिज्ञासा थी। इसीलिए भगवान कहते हैं कि संपूर्ण वेदों और शास्त्रों के द्वारा जानने योग्य मैं स्वयं तुम्हारे सामने बैठा हूँ। ‘वेदान्तकृत्’- भगवान से ही वेद प्रकट हुए हैं।[2] अतः वे ही वेदों के अंतिम सिद्धांत को ठीक-ठीक बताकर वेदों में प्रतीत होने वाले विरोधों का अच्छी तरह समन्वय कर सकते हैं। इसलिए भगवान कहते हैं कि (वेदों का पूर्ण वास्तविक ज्ञाता होने के कारण) मैं ही वेदों के यथार्थ तात्पर्य का निर्णय करने वाला हूँ। ‘वेदविदेव चाहम्’- वेदों के अर्थ, भाव आदि को भगवान ही यथार्थरूप से जानते हैं। वेदों में कौन सी बात किस भाव या उद्देश्य से कही गयी है; वेदों का यथार्थ तात्पर्य क्या है इत्यादि बातें भगवान ही पूर्णरूप से जानते हैं; क्योंकि भगवान से ही वेद प्रकट हुए हैं। वेदों में भिन्न-भिन्न विषय होने के कारण अच्छे-अच्छे विद्वान भी एक निर्णय नहीं कर पाते।[3] इसलिए वेदों के यथार्थ ज्ञाता भगवान का आश्रय लेने से ही वे वेदों का तत्त्व जान सकते हैं और ‘श्रुतिविप्रतिपत्ति’ से मुक्त हो सकते हैं। इस (पंद्रहवें) अध्याय के पहले श्लोक में भगवान ने संसारवृक्ष को तत्त्व से जानने वाले मनुष्य को ‘वेदवित्’ कहा था। अब इस श्लोक में भगवान स्वयं को ‘वेदवित्’ कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सांगोपांगानपि यदि यश्च वेदानधीयते।
वेदवेद्यं न जानीते वेदभावहो हि सः ।। (महाभारत, शांति 318।50)
‘सांगोपांग वेद पढ़कर भी जो वेदों के द्वारा जानने योग्य परमात्मा को नहीं जानता, वह मूढ़ केवल वेदों का बोध ढोने वाला है।’ - ↑ गीता 3:15; 17।23)।
- ↑ गीता 2:53
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