श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
अर्थ- मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ; और मैं ही रसमय चंद्रमा के रूप में समस्त औषधियों- (वनस्पतियों) को पुष्ट करता हूँ। व्याख्या- ‘गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा’- भगवान ही पृथ्वी में प्रवेश करके उस पर स्थित संपूर्ण स्थावर जंगम प्राणियों को धारण करते हैं। तात्पर्य यह है कि पृथ्वी में जो धारण-शक्ति देखने में आती है, वह पृथ्वी की अपनी न होकर भगवान की ही है।[1] वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि पृथ्वी की अपेक्षा जल का स्तर ऊँचा है और पृथ्वी पर जल का भाग स्थल की अपेक्षा बहुत अधिक है।[2] ऐसा होने पर भी पृथ्वी जलमग्न नहीं होती- यह भगवान की धारण शक्ति का ही प्रभाव है। पृथ्वी के उपलक्षण से यह समझना चाहिए कि पृथ्वी के सिवाय जहाँ भी धारण-शक्ति देखने में आती है, वह सब भगवान की ही है। पृथ्वी में अन्नादि ओषधियों को उत्पन्न करने की (उत्पादि का) शक्ति एवं गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी भगवान की ही समझनी चाहिए। ‘पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः’- चंद्रमा में दो शक्तियाँ हैं- प्रकाशिका-शक्ति और पोषण-शक्ति। प्रकाशिका-शक्ति में अपने प्रभाव का वर्णन पूर्वश्लोक में करने के बाद अब भगवान इस श्लोक में चंद्रमा की पोषण-शक्ति में अपना प्रभाव बताते हैं कि चंद्रमा के माध्यम से संपूर्ण वनस्पतियों को मैं ही पुष्ट करता हूँ। चंद्रमा शुक्ल पक्ष में पोषक और कृष्ण पक्ष में शोषक होता है। शुक्ल पक्ष में रसमय चंद्रमा की मधुर किरणों से अमृतवर्षा होने के कारण ही लता-वृक्षादि पुष्ट होते हैं और फलते-फूलते हैं। माता के उदर में स्थित शिशु भी शुक्ल पक्ष में वृद्धि को प्राप्त होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1) द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः। वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः ।। (महाभारत, अनु. 149।134)
‘स्वर्ग, सूर्य, चंद्र तथा नक्षत्रसहित आकाश, दस दिशाएँ, पृथ्वी और महासागर- ये सब भगवान वासुदेव की शक्ति से धारण किए हुए हैं।’
(2) पृथिव्यां तिष्ठान यो यमयति महीं वेद न धरायमित्यादौ वेदो वदति जगतामीशलम्।
नियन्तारं ध्येयं मुनिसुरनृणां मोक्षदमसौ शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः ।।
(शंकराचार्यकृत कृष्णाष्टकम्) ‘पृथ्वी में रहकर जो पृथ्वी का नियमन करते हैं, परंतु पृथ्वी जिनको नहीं जानती; ‘यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथ्वीं यमयति यं पृथिवी न वेद’ आदि श्रुतियों से वेद जिन अमलस्वरूप को जगत् का स्वामी, नियामक, ध्येय और देवता, मनुष्य तथा मुनिजनों को मोक्ष देने वाला बताता है, वे शरणागतवत्सलनिखिल भुवनेश्वर श्रीकृष्णचंद्र मेरे नेत्रों के विषय हों।’ - ↑ पृथ्वी पर जल का कुल भाग लगभग इकहत्तर प्रतिशत और स्थल का कुल भाग लगभग उन्तीस प्रतिशत माना जाता है।
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