श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
देश–काल आदि की अपेक्षा से कहे जाने वाले ‘मै’, ‘तू’, ‘यह’ और ‘वह’- इन चारों के मूल में ‘है’ के रूप में एक ही परमात्मतत्त्व समानरूप से विद्यमान है, जो इन चारों का प्रकाशक और आधार है। ‘मैं’, ‘तू’, ‘यह’ और ‘वह’- ये चारों निरंतर परिवर्तनशील हैं और ‘है’ नित्य अपरिवर्तनशील है। इनमें ‘तू है’, ‘यह है’ और ‘वह है’- ऐसा तो कहा जाता है, पर ‘मैं है’- ऐसा न कहकर ‘मैं हूँ’ कहा जाता है। कारण यह है कि ‘मैं हूँ’ में ‘हूँ’ ‘मैं’ –पन के कारण आया है। जब तक ‘मैं’ –पन है, तभी तक ‘हूँ’ के रूप में एकदेशीयता या परिच्छिन्नता है। ‘मैं’ –पन के मिटने पर एक ‘है’ ही शेष रह जाता है। ‘आत्मनि अवस्थितम्’ का तात्पर्य यह है कि ‘हूँ’ में ‘है’ और ‘है’ में ‘हूँ’ स्थित है। दूसरे शब्दों में व्यष्टि में समष्टि और समष्टि में व्यष्टि स्थित है। जिस प्रकार समुद्र और लहरें दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते, उसी प्रकार ‘है’ और ‘हूँ’ दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। परंतु जैसे जल-तत्त्व में समुद्र और लहरें- ये दोनों ही नहीं है (वास्तव में एक ही जल-तत्त्व है), ऐसे ही परमात्मतत्त्व (‘है’) में ‘हूँ’ और ‘है’- ये दोनों ही नहीं है। ऐसा अनुभव करना ही अपने-आप (स्वयं) में स्थित तत्त्व का अनुभव करना है। ‘मैं’- पन के कारण (संसार में सुखासक्ति तथा परमात्मा से विमुखता होने से) ही परमात्मा का अपने-आप में अनुभव नहीं होता। इसलिए परमात्मा को अपने-आपसे भिन्न में देखने के कारण उससे दूरी या वियोग का अनुभव करना पड़ता है और उसकी प्राप्ति के लिए जगह-जगह भटना पड़ता है। अपने-आपसे भिन्न जितने पदार्थ हैं, उनसे वियोग होना अवश्यम्भावी है। परंतु अपने-आप में परमात्मा अनुभव करने वाले को उससे अपनी दूरी या वियोग का अनुभव नहीं करना पड़ता।[1]। अपने-आपमें परमात्मा को देखना भिन्नता (द्वैतभाव) का पोषक नहीं, प्रत्युक भिन्नता का नाशक है। वास्तव में ‘मैं’-पन ही भिन्नता का पोषक है। मनुष्य ने भिन्नता के वाचक ‘मैं’ –पन अथवा परिच्छिन्नता, पराधीनता, अभाव, अज्ञान आदि विकारों को भूल से अपने-आप में ही मान लिया है। इनको दूर करने के लिए परमात्मा को अपने-आपमें देखना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तमात्मस्थं येनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ।।
(कठ. 2।2।13; श्वेताश्वर. 6।12) ‘अपने-आपमें स्थित (आत्मस्थ) परमात्मा को जो ज्ञानी मनुष्य निरंतर देखते रहते हैं, उनको ही सदा रहने वाला सुख प्राप्त होता है, दूसरों को नहीं।’
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