श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
अपने विवेक (शरीर से अपनी भिन्नता का ज्ञान) को महत्त्व न देने से विवेक दब जाता है। विवेक के दबने पर शरीर (जड-तत्त्व) की प्रधानता हो जाती है और वह सत्य प्रतीत होने लगता है। सत्संग, स्वाध्याय आदि से जैसे-जैसे विवेक विकसित होता है, वैसे-वैसे शरीर से माना हुआ संबंध छूटता चला जाता है। विवेक जाग्रत होने पर परमात्मा (चिन्मय-तत्त्व) से पहले वास्तविक संबंध का- उसमें अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव हो जाता है। यही ‘आत्मनि अवस्थितम्’ पदों का भाव है। विकारी सत्ता (संसार) के संबंध से अहंता- (‘मैं’- पन) की उत्पत्ति होती है। यह अहंता दो प्रकार से मानी जाती है- (1) श्रवण से मानना; जैसे- दूसरों से सुनकर ‘मैं अमुक वर्ण वाला हूँ’ आदि अहंता मान लेते हैं (2) क्रिया से मानना; जैसे- व्याख्यान देना, शिक्षा देना, चिकित्सा करना आदगि क्रियाओं से ‘मैं वक्ता हूँ,’ ‘मैं शिक्षक हूँ’, ‘मैं चिकित्सक हूँ’ आदि अहंता मान लेते हैं। ये दोनों ही प्रकार की अहंता सदा रहने वाली नहीं है, जबकि ‘है’- रूप स्वतः सिद्ध सत्ता सदा रहने वाली है। ‘मैं’- रूप में मानी हुई अहंता का त्याग होने पर ‘हूँ’ –रूप विकारी सत्ता का भी स्वतः त्याग हो जाता है और योगी को ‘है’ –रूप स्वतः सिद्ध सत्ता में अपनी स्थिति का अनुभव हो जाता है। यही अपने-आपमें तत्त्व का अनुभव करना है। |
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