श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
संसार बदलने वाला है। संसार का ही अंश होने के कारण ‘मैं’ भी बदलने वाला है; जैसे- ‘मैं बालक हूँ’, ‘मैं युवा हूँ’, ‘मैं वृद्ध हूँ’, ‘मैं रोगी हूँ’, ‘मैं[1] नीरोग हूँ’ इत्यादि। संसार की तरह ‘मैं’ भी उत्पन्न और नष्ट है वाला है। जैसे संसार नहीं है, ऐसे ही ‘मैं’ भी नहीं है। है सो सुंदर है सदा, नहिं सो सुंदर नाहि । नहिं सो परगट देखिए, है सो दीखे नाहिं ।।‘है’ सदा है और ‘नहीं’ कभी नहीं है। ‘है’ दीखने में नहीं आता, पर ‘नहीं’ दीखने में आता है; क्योंकि जिसके द्वारा हम ‘नहीं’ को देखते हैं, वे मन, बुद्धि, इंद्रियाँ आदि भी ‘नहीं’ के अंश हैं। त्रिपुटी में देखना सजातीयता में ही होता है। अर्थात त्रिपुटी से होने वाले (करण-सापेक्ष) ज्ञान में सजातीयता का होना आवश्यक है। अतः ‘नहीं’ के द्वारा ‘नहीं’ को ही देखा जा सकता है, ‘है’ को नहीं। ‘है’ का ज्ञान त्रिपुटी से रहित (कारण-निरपेक्ष) है। ‘नहीं’ की स्वतंत्रता सत्ता न होने पर भी ‘है’ की सत्ता से ही उसकी सत्ता दीखती है। ‘है’ ही ‘नहीं’ का प्रकाशक और आधार है। जिस प्रकार नेत्र से संसार को तो देख सकते हैं, पर नेत्र से नेत्र को नहीं देखते; क्योंकि जिससे देखते हैं, वह नेत्र है। इसी प्रकार जो सबके जानने वाला है, उस परमात्मा को कैसे और किसके द्वारा जाना जा सकता है ‘विज्ञातारमरे केन विजानीयात्।’[2]? जो ‘है’ से प्रकाशित होता है, वह (‘नहीं’) ‘है’ को कैसे प्रकाशित कर सकता है? अपने-आपमें स्थित तत्त्व (‘है’) का अनुभव अपने-आप- (‘है’) से बिलकुल नहीं। अपने-आपसे होने वाला ज्ञान स्वाधीन और दूसरों (मन, बुद्धि आदि) से होने वाला ज्ञान पराधीन होता है। अपने-आपमें स्थित तत्त्व का अनुभव करने के लिए किसी दूसरे की सहायता लेने की जरूरत भी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ शंका हो सकती है कि बालक, युवा आदि अवस्थाएँ तो बदल गयीं, पर ‘मैं तो वही हूँ’ अर्थात ‘मैं’ तो नहीं बदला। समाधान यह है कि ‘विकारी’ सत्ता (जड) को ‘स्वतः सिद्ध’ सत्ता (चेतन) में मिला देने के कारण ही ‘मैं’ में परिवर्तन नहीं दीखता। वास्तव में ‘मैं’ का प्रकाशक (‘स्वयं’) वही रहता है, ‘मैं’ वहीं नहीं रहता। ‘मैं बालक हूँ’ में जो ‘मैं’ है, वह ‘मैं युवा हूँ’ में नहीं है। अवस्थाओं के साथ सूक्ष्मरूप से ‘मैं’ भी बदलता है। इसी प्रकार अन्य शरीर की प्राप्ति (दूसरा जन्म) होने पर भी पहले शरीर का ‘मैं’ तो नहीं रहता, पर सत्ता रहती है।(गीता 2:13)
‘स्वतः सिद्ध’ सत्ता को लेकर ‘मैं वही हूँ’ कहा जाता है और ‘विकारी’ सत्ता को लेकर ‘मैं बदल गया’ कहा जाता है। - ↑ बृहदारण्यक. 2।4।14
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