श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
विशेष बात (1) मनुष्य भूल से शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, मकान, मान, बड़ाई आदि नाशवान वस्तुओं को अपनी और अपने लिए मानकर दुःखी होता है। इससे भी नीची बात यह है कि इस सामग्री के भोग और संग्रह को लेकर वह अपने को बड़ा मानने लगता है; जबकि वास्तव में इनको अपना मानते ही इनका गुलाम हो जाता है। हमें पता लगे या न लगे, हम जिन पदार्थों की आवश्यकता समझते हैं, जिनमें कोई विशेषता या महत्त्व देखते हैं जिनकी हम गरज रखते हैं, वे (धन, विद्या आदि) पदार्थ हमसे बड़े और हम उनसे तुच्छ हो ही गये। पदार्थों के मिलने में जो अपना महत्त्व समझता है, वह वास्तव में तुच्छ ही है, चाहे उसे पदार्थ मिलें या न मिलें। भगवान का दास होने पर भगवान कहते हैं- ‘मैं तो हूँ भगवान का दास, भगत मेरे मुकुटमणि’! परंतु जिनके हम दास बने हुए हैं, वे धनादि जड पदार्थ कभी नहीं कहते- ‘लोभी मेरे मुकुटमणि’! वे तो केवल हमें अपना दास ही बनाते हैं। वास्तव में भगवान को अपना जानकर उनके शरण हो जाने से ही मनुष्य बड़ा बनता है, ऊँचा उठता है। इतना ही नहीं; भगवान ऐसे भक्त को अपने से भी बड़ा मान लेते हैं और कहते हैं- अहं भक्तपराधीनो ह्रास्वतंत्र इव द्विज । हे द्विज! मैं भक्तों के पराधीन हूँ, स्वतंत्र नहीं। भक्तजन मेरे को अत्यंत प्यारे हैं। मेरे हृदय पर उनका पूर्ण अधिकार है। कोई भी सांसारिक व्यक्ति, पदार्थ क्या हमें इतनी बड़ाई दे सकता है? यह जीव परमात्मा का अंश होते हुए भी प्रकृति के अंश शरीरादि को अपना मानकर स्वयं अपना अपमान करता है और अपने को नीचे गिराता है। अगर मनुष्य इन शरीर, इंद्रियाँ, मन आदि सांसारिक पदार्थों का दास न बने, तो वह भगवान का भी इष्ट हो जाए- ‘इष्टोऽसि मे दृढमिति’।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 9।4।63
- ↑ गीता 18:64
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