श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
यहाँ बुद्धि का अंतर्भाव, ‘मन’ शब्द में (जो अंतःकरण का उपलक्षण है) और पाँच कर्मेंद्रियों तथा पाँच प्राणों का अंतर्भाव ‘इंद्रिय’ शब्द में मान लेना चाहिए। उपर्युक्त पदों में भगवान कहते हैं कि मेरा अंश जीव मेरे में स्थित रहता हुआ भी भूल से अपनी स्थिति शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि में मान लेता है। जैसे शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि प्रकृति का अंश होने से कभी प्रकृति से पृथक नहीं होते, ऐसे ही जीव भी मेरा अंश होने से कभी मेरे से पृथक होता नहीं, हो सकता नहीं। परंतु यह जीव मेरे से विमुक होकर मुझे भूल गया है। यहाँ मन और पाँच ज्ञानेंद्रियों का नाम लेने का तात्पर्य यह है कि इन छहों से संबंध जोड़कर ही जीव बँधता है। अतः साधक को चाहिए कि वह शरीर-इंद्रियाँ-मन-बुद्धि को संसार के अर्पण कर दे अर्थात संसार की सेवा में लगा दे और अपने-आपको भगवान के अर्पण कर दे।
|
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज