श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
जब कामनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है, तब उन कर्मों के संस्कार उसके अंतःकरण में संचित होकर भावी जन्म-मरण के कारण बन जाते हैं। मनुष्योनि में किए हुए कर्मों का फल इस जनम में तथा मरने के बाद भी अवश्य भोगना पड़ता है।[2] अतः तादात्म्य, ममता और कामना के रहते हुए कर्मों से संबंध नहीं छूट सकता। यह नियम है कि जहाँ से बंधन होता है, वहीं से छुटकारा होता है; जैसे- रस्सी की गाँठ जहाँ लगी है, वहीं से वह खुलती है। मनुष्य योनि में ही जीव शुभाशुभ कर्मों से बँधता है; अतः मनुष्ययोनि में ही वह मुक्त हो सकता है। पहले श्लोक में आए ‘उर्ध्वमूलम्’ पद का तात्पर्य है- परमात्मा, जो संसार के रचयिता तथा उसके मूल आधार हैं; और यहाँ ‘मूलानि’ पद का तात्पर्य है- तादात्म्य, ममता और कामनारूप मूल, जो संसार में मनुष्य को बाँधते हैं। साधक को इन (तादात्म्य, ममता और कामनारूप) मूलों का तो छेदन करना है और ऊर्ध्वमूल परमात्मा का आश्रय लेना है, जिसका उल्लेख ‘तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये’ पद से इसी अध्याय के चौथे श्लोक में हुआ है। मनुष्य लोक में कर्मानुसार बाँधने वाले तादात्म्य, ममता और कामनारूप मूल नीच और ऊपर सभी लोकों, योनियों में व्याप्त हो रहे हैं। पशु-पक्षियों का भी अपने शरीर से ‘तादात्म्य’ रहता है, अपनी संतान में ‘ममता’ होती है और भूख लगने पर खाने के लिए अच्छे पदार्थों की ‘कामना’ होती है। ऐसे ही देवताओं में भी अपने दिव्य शरीर से ‘तादात्म्य’ प्राप्त पदार्थों में ‘ममता’ और अप्राप्त भोगों की ‘कामना’ रहती है। इस प्रकार तादात्म्य, ममता और कामनारूप दोष किसी-न-किसी रूप में ऊँच-नीच सभी योनियों में रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ये तीन इच्छाएँ (बाँधने वाली न होने के कारण) ‘कामना’ नहीं कहलातीं- (1) भगद्दर्शन या भगवत्प्रेम की कामना, (2) स्वरूप बोध की कामना और (3) सेवा करने की कामना। स्वरूपबोध या परमात्मा (भगवद्दर्शन या भगवत्प्रेम) की इच्छा ‘कामना’ नहीं है; क्योंकि स्वरूप और परमात्मा दोनों ही ‘नित्यप्राप्त’ तथा ‘अपने’ हैं। जैसे अपनी जे से पैसे निकालना चोरी नहीं कहलाती, ऐसे ही स्वरूप या परमात्मा- (जो अपने तथा अपने में है-) की इच्छा करना ‘कामना’ नहीं कहलाती। संसार की वस्तु को संसार की ही सेवा में लगा देने की इच्छा भी ‘कामना’ नहीं, प्रत्युत त्याग है; क्योंकि ‘कामना’ लेने की होती है, देने की नहीं। तात्पर्य है कि जो वस्तु अपनी तथा अविनाशी है, उसकी इच्छा करना ‘आवश्यकता’ (भूख) है; और जो वस्तु दूसरे की तथा नाशवान है, उसे दूसरे को देने की इच्छा करना ‘त्याग’ है। जैसे शरीर की भूख मिटाने के लिए भोजन की इच्छा करना एक प्रकार से ‘कामना’ नहीं होती, ऐसे ही ‘स्वयं’ की भूख मिटाने के लिए परमात्मतत्त्व की इच्छा करना ‘कामना’ नहीं होती। कामना नाशवान जड-वस्तु की होती है, और आवश्यकता चिन्मय-तत्त्व की होती है। कामना की पूर्ति नहीं होती, प्रत्युत वह बढ़ती ही रहती है, इसलिए उसका त्याग करना है; परंतु आवश्यकता की पूर्ति होती है। उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए तीन उपाय हैं- कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। मनुष्य ने सांसारिक नाशवान चीजों को अपनी माना है जिससे वह संसार का गुलाम हुआ है। अतः वह सबके हित के उद्देश्य से उन नाशवान चीजों को संसार की समझकर संसार की सेवा, हित में लगा दे, तो उसकी गुलामी (पराधीनता) छूट जाएगी और वह स्वतंत्र हो जाएगा- यह कर्मयोग है। परमात्मा तो अपना स्वरूप है। जीव उससे अलग नहीं है। केवल नाशवान चीजों से अपना संबंध मानने से वह अपने स्वरूप से च्युत हुआ है। अतः नाशवान के संबंध का त्याग कर दें, तो अपने स्वरूप का बोध हो जाएगा- यह ज्ञानयोग है। भगवान अंशी है और जीव अंश है, और इनका परस्पर नित्य-संबंध है। केवल नाशवान चीज को अपनी माना है, जिससे वह भगवान से विमुख हुआ है। नाशवान को अपना न मानकर एकमात्र भगवान को ही अपना मानने से वह स्वतः भगवान के सम्मुख हो जाएगा और उसे भगवत्प्रेम प्राप्त हो जाएगा- यह भक्तियोग है। तात्पर्य यह है कि नाशवान चीज को अपनी मानने से ही यह जीव संसार का गुलाम, अपने स्वरूप से च्युत और भगवान से विमुख हुआ है। यदि वह नाशवान चीज को अपनी न माने (जो कि अपनी नहीं है), तो संसार की गुलामी छूट जाएगी, अपने स्वरूप का बोध हो जाएगा और भगवत्प्रेम की प्राप्ति हो जाएगी।
- ↑ गीता 18:12
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