श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
‘अधश्चोर्ध्वं प्रसुताः’- यहाँ ‘च’ पद को मध्यलोक अर्थात मनुष्यलोक (इसी श्लोक के ‘मनुष्यलोके कर्मानुबन्धीनि’ पदों) का वाचक समझना चाहिए। ‘ऊर्ध्वम्’ पद का तात्पर्य ब्रह्मलोक आदि से है, जिसमें जाने के दो मार्ग हैं- देवयान और पितृयान (जिसका वर्णन आठवें अध्याय के चौबीसवें-पचीसवें श्लोक में शुक्ल और कृष्ण-मार्ग के नाम से हुआ है)। ‘अधः’ पद का तात्पर्य नरकों से है, जिसके भी दो भेद हैं- योनिविशेष नरक और स्थान विशेष नरक। इन पदों से यह कहा गया है कि ऊर्ध्वमूल परमात्मा से नीचे, संसारवृक्ष की शाखाएँ नीचे, मध्य और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं। इसमें मनुष्ययोनिरूप शाखा ही मूल शाखा है; क्योंकि मनुष्ययोनि में नवीन कर्मों को करने का अधिकार है। अन्य शाखाएँ भोगयोनियाँ हैं, जिनमें केवल पूर्वकृत कर्मों का फल भोगने का ही अधिकार है। इस मनुष्ययोनिरूप मूल शाखा से मनुष्य नीचे (अधोलोक) तथा ऊपर (ऊर्ध्वलोक) –दोनों ओर जा सकता है; और संसारवृक्ष का छेदन करके सबसे ऊर्ध्व (परमात्मा) तक भी जा सकता है। मनुष्य-शरीर में ऐसा विवेक है, जिसको महत्त्व देकर जीव परमधाम तक पहुँच सकता है और अविवेकपूर्वक विषयों का सेवन करके नरकों में भी जा सकता है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है- नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी । ‘अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्य लोके’- मनुष्य के अतिरिक्त दूसरी सब भोग योनियाँ हैं। मनुष्य योनि में किए हुए पाप-पुण्यों का फल भोगने के लिए ही मनुष्य को दूसरी योनियों में जाना पड़ता है। नये पाप-पुण्य करने का अथवा पाप-पुण्य से रहित होकर मुक्त होने का अधिकार और अवसर मनुष्य-शरीर में ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 5:22
- ↑ दोषेण तीव्रो विषयः कृष्णसर्पविषादपि। विषं निहन्ति भोक्तारं द्रष्टारं चक्षुषाप्ययम् ।। (विवेकचूड़ामणि 79) ‘दोष में विषय काले सर्प के विष से भी अधिक तीव्र है; क्योंकि विष तो खाने वाले को ही मारता है, पर विषय आँख से देखने वाले को भी नहीं छोड़ते।’
- ↑ मोक्षस्य कांक्षा यदि वै तवास्ति त्यजातिदूराद्विषयान् विषं यथा। (विवेक. 84)
‘यदि तुझे मोक्ष की इच्छा है तो विषयों को विष के समान दूर ही से त्याग दे।’ - ↑ मानका 7।121।5
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