श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । अर्थ- उस संसार वृक्ष की गुणों- (सत्त्व, रज और तम) के द्वारा बढ़ी हुई तथा विषयरूप कोंपलों वाली शाखाएँ नीचे, मध्य में और ऊपर सब जगह फैली हुई हैं। मनुष्यलोक में कर्मों के अनुसार बाँधने वाले मूल भी नीचे और ऊपर (सभी लोकों में) व्याप्त हो रहे हैं। व्याख्या- ‘तस्य शाखा गुणप्रवृद्धाः’- संसार वृक्ष की मुख्य शाखा ब्रह्मा है। ब्रह्मा से संपूर्ण देव, मनुष्य, तिर्यक् आदि योनियों की उत्पत्ति और विस्तार हुआ है। इसलिए ब्रह्मलोक से पाताल तक जितने भी लोक तथा उनमें रहने वाले देव, मनुष्य, कीट आदि प्राणी हैं, वे सभी संसार वृक्ष की शाखाएँ हैं। जिस प्रकार जल सींचने से वृक्ष की शाखाएँ बढ़ती हैं, उसी प्रकार गुणरूप जल के संग से इस संसार वृक्ष की शाखाएँ बढ़ती हैं। इसीलिए भगवान ने जीवात्मा के ऊँच, मध्य और नीच योनियों में जन्म लेने का कारण गुणों का संग ही बताया है।[1] संपूर्ण सृष्टि में ऐसा कोई देश, वस्तु, व्यक्ति नहीं, जो प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों से रहित हो।[2] इसलिए गुणों के संबंध से ही संसार की स्थिति है। गुणों की अनुभूति गुणों से उत्पन्न वृत्तियों तथा पदार्थों के द्वारा होती है। अतः वृत्तियों तथा पदार्थों से माने हुए संबंध का त्याग कराने के लिए ही ‘गुणप्रवृद्धाः’ पद से देकर भगवान ने यहाँ यह बताया है कि जब तक गुणों से किञ्चिन्मात्र भी संबंध है, तब तक संसार वृक्ष की शाखाएँ बढ़ती ही रहेंगी। अतः संसारवृक्ष का छेदन करने के लिए गुणों का संग किञ्चिन्मात्र भी नहीं रखना चाहिए; क्योंकि गुणों का संग रहते हुए संसार से संबंध-विच्छेद नहीं हो सकता। ‘विषयप्रवालाः’- जिस प्रकार शाखा से निकलने वाली नयी कोमल पत्ती के डंठल से लेकर पत्ती के अग्रभाग तक को प्रवाल (कोंपल) कहा जाता है, उसी प्रकार गुणों की वृत्तियों से लेकर दृश्य पदार्थ मात्र को यहाँ ‘विषयप्रवालाः’ कहा गया है।वृक्ष के मूल से तना (मुख्य शाखा), तने से शाखाएँ और शाखाओं से कोंपलें फूटती हैं और कोंपलों से शाखाएँ आगे बढ़ती हैं। इस संसारवृक्ष में विषय-चिन्तन ही कोंपलें हैं। विषय-चिन्तन तीनों गुणों से होता है। जिस प्रकार गुणरूप जल से संसारवृक्ष की शाखाएँ बढ़ती हैं, उसी प्रकार गुणरूप जल से विषयरूप कोंपलें भी बढ़ती हैं। जैसे कोंपलें दीखती हैं, उनमें व्याप्त जल नहीं दीखता, ऐसे ही शब्दादि विषय तो दीखते हैं, पर उनमें गुण नहीं दीखते। अतः विषयों से ही गुण जाने जाते हैं। ‘विषयप्रवालाः’ पद का भाव यह प्रतीत होता है कि विषय-चिन्तन करते हुए मनुष्य का संसार से संबंध-विच्छेद नहीं हो सकता।[3][4] अंतकाल में मनुष्य जिस-जिस भाव का चिन्तन करते हुए शरीर का त्याग करता है, उस-उस भाव को ही प्राप्त होता है[5]- यही विषयरूप कोंपलों का फूटना है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 13:21; गीता 14:18
- ↑ गीता 18:40
- ↑ सेवत विषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार ।। (मानस 6।92)
- ↑ गीता 2।62-63
- ↑ गीता 8:6
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