श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्दश अध्याय
सत्त्वं सुखे संजयति रज: कर्मणि भारत ।
उत्तर- ‘सुख’ शब्द यहाँ सात्त्विक सुख का वाचक है[1] और सत्त्वगुण का जो इस मनुष्य को सांसारिक भोगों और चेष्टाओं से तथा प्रमाद, आलस्य और निद्रा से हटाकर आत्मचिन्तन आदि के द्वारा सात्त्विक सुख से संयुक्त कर देना है- यही उसको सुख में लगाना है। प्रश्न- ‘कर्म’ शब्द यहाँ कौन-से कर्मों का वाचक है और रजोगुण का इस मनुष्य को उनमें लगाना क्या है? उत्तर- ‘कर्म’ शब्द यहाँ (इस लोक और परलोक के भोगरूप फल देने वाले) शास्त्रविहित सकाम कर्मों का वाचक है। नाना प्रकार के भोगों की इच्छा उत्पन्न करके उनकी प्राप्ति के लिये उन कर्मों में मनुष्य को प्रवृत्त कर देना ही रजोगुण का मनुष्य को उन कर्मों में लगाना है। प्रश्न- तमोगुण का इस मनुष्य के ज्ञान को आच्छादित करना और उसे प्रमाद में लगा देना क्या है? तथा इन वाक्यों में ‘तु’ और ‘उत’ इन दो अव्ययपदों के प्रयोग का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जब तमोगुण बढ़ता है, तब वह कभी तो मनुष्य की कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करने वाली विवेकशक्ति को नष्ट कर देता है और कभी अन्तःकरण और इन्द्रियों की चेतना को नष्ट करके निद्रा की वृत्ति उत्पन्न कर देता है। यही उसका मनुष्य के ज्ञान को आच्छादित करना है और कर्तव्यपालन में अवहेलना कराके व्यर्थ चेष्टाओं में नियुक्त कर देना ‘प्रमाद’ में लगाना है। इस वाक्य में ‘तु’ अव्यय के प्रयोग से यह भाव दिखलाया है कि तमोगुण केवल ज्ञान को आवृत करके ही पिण्ड नहीं छोड़ता, दूसरी क्रिया भी करता है; और ‘उत’ के प्रयोग से यह दिखलाया है कि यह जैसे ज्ञान को आच्छादित करके प्रमाद में लगाता है, वैसे ही निद्रा और आलस्य में भी लगाता है। अभिप्राय यह है कि जब यह विवेक ज्ञान को आवृत करता है, तब तो प्रमाद में लगाता है एवं जब अन्तःकरण और इन्द्रियों की चेतनशक्ति रूप ज्ञान को क्षीण और आवृत करता है तब आलस्य और निद्रा में लगाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18। 36, 37
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