त्रयोदश अध्याय
सम्बन्ध- उपर्युक्त श्लोक में यह कहा गया है कि उस परमेश्वर को जो सब भूतों में नाशरहित और समभाव से स्थित देखता है, वही ठीक देखता है; इस कथन की सार्थकता दिखलाते हुए उसका फल परमगति की प्राप्ति बतलाते हैं -
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ।। 28 ।।
क्योंकि जो पुरुष सब में समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है।। 28 ।।
प्रश्न- यहाँ ‘हि’ पद किस अर्थ में है और इसके प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर- यहाँ ‘हि’ पद हेतु- अर्थ में है। इसका प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि समभाव से देखने वाला अपना नाश नहीं करता और परम गति को प्राप्त हो जाता है। इसलिये उसको देखना ही यथार्थ देखना है।
प्रश्न- सर्वत्र समभाव से स्थित परमेश्वर को सम देखना क्या है और इस प्रकार देखने वाला अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- एक ही सच्चिदानन्दघन परमात्मा सर्वत्र समभाव से स्थित है, अज्ञान के कारण ही भिन्न-भिन्न शरीरों में उसकी भिन्नता प्रतीक होती है- वस्तुतः उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है- इस तत्त्व को भलीभाँति समझकर प्रत्यक्ष कर लेना ही ‘सर्वत्र समभाव से स्थित परमेश्वर को सम देखना’ है। जो इस तत्त्व को नहीं जानते, उनका देखना सम देखना नहीं है। क्योंकि उनकी सबमें विषमबुद्धि होती है; वे किसी को अपना प्रिय, हितैषी और किसी को अप्रिय तथा अहित करने वाला समझते हैं एवं अपने-आपको दूसरों से भिन्न, एकदेशीय मानते हैं। अतएव वे शरीरों के जन्म और मरण को अपना जन्म और मरण मानने के कारण बार-बार नाना योनियों में जन्म लेकर मरते रहते हैं, यही उनका अपने द्वारा अपने को नष्ट करना है; परंतु जो पुरुष उपर्युक्त प्रकार से एक ही परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वह न तो अपने को उस परमेश्वर से भिन्न समझता है और न इन शरीरों से अपना कोई सम्बन्ध ही मानता है। इसलिये वह शरीरों के विनाश से अपना विनाश नहीं देखता और इसीलिये वह अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता। अभिप्राय यह है कि उसकी स्थिति सर्वज्ञ, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में अभिन्नभाव से हो जाती है; अतएव वह सदा के लिये जन्म-मरण से छूट जाता है।
प्रश्न- ‘ततः’ पद का प्रयोग किस अर्थ में हुआ है और इसका प्रयोग करके परमगति को प्राप्त होने की बात कहने का क्या भाव है?
उत्तर- ‘ततः’ पद भी हेतुबोधक है। इसका प्रयोग करके परमगति की प्राप्ति बतलाने का यह भाव है कि सर्वत्र समभाव से स्थित सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित रहने वाला वह पुरुष अपने द्वारा अपना विनाश नहीं करता, इस कारण वह सदा के लिये जन्म-मृत्यु से छूटकर परमगति के प्राप्त हो जाता है। जो परम पद के नाम से कहा है, जिसको प्राप्त करके पुनः लौटना नहीं पड़ता और जो समस्त साधनों का अन्तिम फल है- उसको प्राप्त होना ही यहाँ ‘परमगति को प्राप्त होना’ है।
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