त्रयोदश अध्याय
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति ।। 27 ।।
जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाश रहित और समभाव से स्थित देखता है वही यथार्थ देखता है।। 27 ।।
प्रश्न- ‘विनश्यत्सु’ और ‘सर्वेषु’- इन दोनों विशेषणों के सहित ‘भूतेष’ पद किनका वाचक है और उनके साथ इन दोनों विशेषणों का प्रयोग करके क्या भाव दिखलाया गया है?
उत्तर- बार-बार जन्म लेने और मरने-वाले जितने भी प्राणी हैं, भिन्न-भिन्न सूक्ष्म और स्थूल शरीरों के संयोग-वियोग से जिनका जन्मना और मरना माना जाता है, उन सबका वाचक यहाँ ‘विनश्यत्सु’ और ‘सर्वेषु’ इन दोनों विशेषणों के सहित ‘भूतेषु’ पद है। समस्त प्राणियों का ग्रहण करने के लिये उसके साथ ‘सर्वेषु’ और शरीरों के सम्बन्ध से उनको विनाशशील बतलाने के लिये ‘विनश्यत्सु’ विशेषण दिया गया है। यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिये कि विनाश होना शरीर का धर्म है आत्मा का नहीं। आत्मतत्त्व नित्य और अविनाशी है तथा वह शरीरों के भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीत होने वाले समस्त प्राणि समुदाय में वस्तुतः एक ही है। यही बात इस श्लोक में दिखलायी गयी है।
प्रश्न- यहाँ ‘परमेश्वरम्’ पद किसका वाचक है तथा उपर्युक्त समस्त भूतों में नाशरहित और समभाव से स्थित देखना क्या है?
उत्तर- यहाँ ‘परमेश्वरम्’ पद प्रकृति से सर्वथा अतीत उस निर्विकार चेतन तत्त्व का वाचक है, जिसका वर्णन ‘क्षेत्रज्ञ’ के साथ एकता करते हुए इसी अध्याय के बाईसवें श्लोक में उपद्रष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर और परमात्मा के नाम से किया गया है। यह परम पुरुष यद्यपि वस्तुतः शुद्ध सच्चिदानन्दघन है और प्रकृति से सर्वथा अतीत है, तो भी प्रकृति के संग से इसको क्षेत्रज्ञ और प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता कहा जाता है। अतः समस्त प्राणियों के जितने भी शरीर हैं, जिनके सम्बन्ध से वे विनाशशील कहे जाते हैं, उन समस्त शरीरों में उनके वास्तविक स्वरूपभूत एक ही अविनाशी निर्विकार चेतनतत्त्व को जो विनाशशील बादलों में आकाश की भाँति समभाव से स्थित और नित्य देखना है- वही उस ‘परमेश्वर को समस्त प्राणियों में विनाशरहित और समभाव से स्थित देखना’ है।
प्रश्न- यहाँ ‘जो देखता है वही यथार्थ देखता है’ इस वाक्य से क्या भाव दिखलाया गया है?
उत्तर- इस श्लोक में आत्मतत्त्व को जन्म और मृत्यु आदि समस्त विकारों से रहित- निर्विकार एवं सम बतलाया गया है। अतएव इस वाक्य से यह भाव दिखलाया गया है कि जो इस नित्य चेतन एक आत्मतत्त्व को इस प्रकार निर्विकार, अविनाशी और असंगरूप से सर्वत्र समभाव से स्थित देखता है- वही यथार्थ देखता है। जो इसे शरीरों के संग से जन्म-मरणशील और सुखी-दुःखी समझते हैं, उनका देखना यथार्थ देखना नहीं है; अतएव वे देखते हुए भी नहीं देखते।
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