त्रयोदश अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार परमात्मसम्बन्धी तत्त्वज्ञान के भिन्न-भिन्न साधनों का प्रतिपादन करके अब तीसरे श्लोक में जो ‘यादृक्’ पद से क्षेत्र के स्वभाव को सुनने के लिये कहा था, उसके अनुसार भगवान् दो श्लोकों द्वारा उस क्षेत्र को उत्पत्ति-विनाशशील बतलाकर उसके स्वभाव का वर्णन करते हुए आत्मा के यथार्थ तत्त्व को जानने वाले की प्रशंसा करते हैं-
यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावर जंगमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ।। 26 ।।
हे अर्जुन! जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान।। 27 ।।
प्रश्न- ‘यावत्’, ‘किञ्चित’ और ‘स्थावरजंगमम्’- इन तीनों विशेषणों का क्या अभिप्राय है तथा इन तीनों विशेषणों से युक्त ‘सत्त्वम्’ पद किसका वाचक है?
उत्तर- ‘यावत्’, ‘किञ्चित’- ये दोनों पद चराचर जीवों की सम्पूर्णता के बोधक हैं। देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि चलने-फिरने वाले प्राणियों को ‘जंगम’ कहते हैं और वृक्ष, लता, पहाड़ आदि स्थिर रहने वाले प्राणियों को ‘स्थावर’ कहते हैं। अतएव इन तीनों विशेषणों से युक्त ‘सत्त्वम्’ पद समस्त चराचर प्राणिसमुदाय का वाचक है।
प्रश्न- ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ शब्द यहाँ किसके वाचक हैं और इन दोनों का संयोग तथा उससे समस्त प्राणि समुदाय का उत्पन्न होना क्या है?
उत्तर- इस अध्याय के पाँचवें श्लोक में जिन चौबीस तत्त्वों के समुदाय को क्षेत्र स्वरूप बतलाया गया है, सातवें अध्याय के चौथे-पाँचवें श्लोकों में जिसको ‘अपरा प्रकृति’ कहा गया है- वही ‘क्षेत्र’ है और उसको जो जानने वाला है, सातवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में जिसको ‘परा प्रकृति’ कहा गया है- वह चेतन तत्त्व ही ‘क्षेत्रज्ञ’ है। उसका यानी ‘प्रकृतिस्थ’ पुरुष का जो प्रकृति से बने हुए भिन्न-भिन्न सूक्ष्म और स्थूल शरीरों के साथ सम्बन्ध होना है, वही क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का संयोग है और इसके होते ही जो भिन्न-भिन्न योनियों द्वारा भिन्न-भिन्न आकृतियों में प्राणियों का प्रकट होना है- वही उनका उत्पन्न होना है।
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