त्रयोदश अध्याय
प्रश्न- ‘श्रुतिपरायणाः’ विशेषण का क्या भाव है? तथा ‘अपि’ पद के प्रयोग का यहाँ क्या भाव है?
उत्तर- जो सुनने के परायण होते हैं अर्थात् जैसा सुनते हैं, उसी के अनुसार साधन करने में श्रद्धा और प्रेम के साथ तत्परता से लग जाते हैं- उनको ‘श्रुतिपरायणाः’ कहते हैं। ‘अपि’ पद का प्रयोग करके यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि जब इस प्रकार के अल्प बुद्धि वाले पुरुष दूसरों से सुनकर भी उपासना करके मृत्यु से तर जाते हैं- इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है, तब फिर जो साधक पूर्वोक्त तीन प्रकार के साधनों में से किसी प्रकार का एक साधन करते हैं- उनके तरने में तो कहना ही क्या है।
प्रश्न- यहाँ ‘मृत्युम्’ पद किसका वाचक है और ‘अति’ उपसर्ग के सहित ‘तरन्ति’ क्रिया के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर- यहाँ ‘मुत्युम्’ पद बार-बार जन्म-मृत्यु रूप संसार का वाचक है और ‘अति’ उपसर्ग के सहित ‘तरन्ति’ क्रिया का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त प्रकार के साधन करने वाले पुरुष जन्म-मृत्यु रूप दुःखमय संसार समुद्र से पार होकर सदा के लिये सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं; फिर उनका पुनर्जन्म नहीं होता। अभिप्राय यह है कि तेईसवें श्लोक में जो बात ‘न स भूयोऽभिजायते’ से और चौबीसवें में जो बात ‘आत्मनि आत्मानं पश्यन्ति से कही है, वही बात यहाँ ‘मृत्युम् अतितरन्ति’ से कही गयी है।
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