श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
अन्ये त्वेमवजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
उत्तर- ‘तु’ पद यहाँ इस बात का द्योतक है कि अब पूर्वोक्त साधकों से विलक्षण दूसरे साधकों का वर्णन किया जाता है। अभिप्राय यह है कि जो लोग पूर्वोक्त साधनों को भलीभाँति नहीं समझ पाते, उनका उद्धार कैसे हो सकता है? इसका उत्तर इस श्लोक में दिया गया है। प्रश्न- ‘एवम् अजानन्तः’ विशेषण के सहित ‘अन्ये’ पद किनका वाचक है और उनका दूसरों से सुनकर उपासना करना क्या है? उत्तर- बुद्धि की मन्दता के कारण जो लोग पूर्वोक्त ध्यानयोग, सांख्ययोग और कर्मयोग- इनमें से किसी भी साधन को भलीभाँति नहीं समझ पाते, ऐसे साधकों का वाचक यहाँ ‘एवम् अजानन्तः’ विशेषण के सहित ‘अन्ये’ पद है। जबाला के पुत्र सत्यकाम ब्रह्म को जानने की इच्छा से गौतमगोत्रीय महर्षि हारिद्रुमत के पास गये। वहाँ बातचीत होने पर गुरु ने चार सौ अत्यन्त कृश और दुर्बल गौएँ अलग करके उनसे कहा- ‘हे सौम्य! तू इन गौओं के पीछे-पीछे जा।’ गुरु की आज्ञानुसार अत्यन्त श्रद्धा, उत्साह और हर्ष के साथ उन्हें वन की ओर ले जाते हुए सत्यकाम ने कहा- ‘इनकी संख्या एक हजार पूरी करके मैं लौटूँगा।’ वे उन्हें तृण और जल की अधिकता वाले निरापद वन में ले गये और पूरी एक हजार होने पर लौटे। फल यह हुआ कि लौटते समय रास्ते में ही उनको ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया।[1] इसी प्रकार के तत्त्व के जानने वाले ज्ञानी पुरुषों का आदेश प्राप्त करके अत्यन्त श्रद्धा और प्रेम के साथ जो उसके अनुसार आचरण करना है, वही दूसरों से सुनकर उपासना करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ छान्दोग्य-उ. 4। 4-9
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