त्रयोदश अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार नित्य विज्ञानानन्दघन आत्मतत्त्व को सर्वत्र समभाव से देखने का महत्त्व और फल बतलाकर अब अगले श्लोक में उसे अकर्ता देखने वाले की महिमा कहते हैं-
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश: ।
य: पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ।। 29 ।।
और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है।। 29 ।।
प्रश्न- तीसरे अध्याय के सत्ताईसवें, अट्ठाइसवें और चौदहवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोकों में समस्त कर्मों का गुणों द्वारा किये जाते हुए बतलाया गया है तथा पाँचवें अध्याय के आठवें, नवें श्लोकों में सब इन्द्रियों का इन्द्रियों के विषयों में बरतना कहा गया है; और यहाँ सब कर्मों को प्रकृति द्वारा किये जाते हुए देखने को कहते हैं। इस प्रकार तीन तरह के वर्णन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण प्रकृति के ही कार्य हैं; तथा समस्त इन्द्रियाँ और मन, बुद्धि आदि एवं इन्द्रियों के विषय- ये सब भी गुणों का विस्तार हैं। अतएव इन्द्रियों का इन्द्रियों के विषयों में बरतना, गुणों का गुणों में बरतना आदि गुणों द्वारा समस्त कर्मों को किये जाते हुए बतलाना भी सब कर्मों को प्रकृति द्वारा ही किये जाते हुए बतलाना है। इस प्रकार सब जगह वस्तुतः एक ही बात कही गयी है; इसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। सभी जगहों के कथन का अभिप्राय आत्मा में कर्तापन का अभाव दिखलाना है।
प्रश्न- आत्मा को अकर्ता देखना क्या है और जो ऐसा देखता है, वही यथार्थ देखता है- इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और सब प्रकार के विकारों से रहित है; प्रकृति से उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। अतएव वह न किसी भी कर्म का कर्ता है और न कर्मों के फल का भोक्ता ही है- इस बात का अपरोक्षभाव से अनुभव कर लेना ‘आत्मा को अकर्ता समझना’ है। तथा जो ऐसा देखता है, वही यथार्थ देखता है- इस कथन से उसकी महिमा प्रकट की गयी है। अभिप्राय यह है कि जो आत्मा को मन, बुद्धि और शरीर के सम्बन्ध से समस्त कर्मों का कर्ता-भोक्ता समझते हैं उनका देखना भ्रमयुक्त होने से गलत है।
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