श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- ‘भूतानि’ पद यहाँ प्राणिमात्र का वाचक है। उनके साथ ‘अव्यक्तादीनि’ विशेषण जोड़कर यह भाव दिखलाया है कि आदि में अर्थात् जन्म से पहले इनका वर्तमान स्थूल शरीरों से सम्बन्ध नहीं था; ‘अव्यक्तनिधनानि’ से यह भाव दिखलाया है कि अन्त में अर्थात् मरने के बाद भी स्थूल शरीरों से इनका सम्बन्ध नहीं रहेगा और ‘व्यक्तमध्यानि’ से यह भाव दिखलाया है कि केवल जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त बीच की अवस्था में ही ये व्यक्त हैं अर्थात् इनका शरीरों के साथ सम्बन्ध है। प्रश्न- ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है, इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि जैसे स्वप्न की सृष्टि स्वप्नकाल से पहले या पीछे नहीं है, केवल स्वप्नकाल में ही मनुष्य का उसके साथ सम्बन्ध-सा प्रतीत होता है उसी प्रकार जिन शरीरों के साथ केवल बीच की अवस्था में ही सम्बन्ध होता है, नित्य सम्बन्ध नहीं है। उनके लिये क्या शोक करना है? महाभारत-स्त्रीपर्व के द्वारा अध्याय में विदुर जी ने भी यही बात इस प्रकार कही है - अदर्शनादापतिताः पुनश्चादर्शनं गताः। अर्थात् जिनको तुम अपने मान रहे हो, ये सब अदर्शन से आये हुए थे यानी जन्म से पहले अप्रकट थे और पुनः अदर्शन को प्राप्त हो गये। अतः वास्तव में न ये तुम्हारे हैं और न तुम इनके हो फिर इस विषय में शोक कैसा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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