श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- ‘हि’ हेतु के अर्थ में है। पूर्व श्लोक में जिस मान्यता के अनुसार भगवान् ने शोक करना अनुचित बतलाया है, उसी मान्यता के अनुसार युक्तिपूर्वक उस बात को इस श्लोक में सिद्ध करते हैं। प्रश्न- जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है- यह बात तो ठीक है; क्योंकि जन्मा हुआ सदा नहीं रहता, इस बात को सभी जानते हैं। परंतु यह बात कैसे कही कि जो मर गया है उसका जन्म निश्चित है; क्योंकि जो मुक्त हो जाता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता- यह प्रसिद्ध है।[1] उत्तर- यहाँ भगवान् वास्तविक सिद्धान्त की बात नहीं कह रहे हैं, भगवान् का यह कथन तो उन अज्ञानियों की दृष्टि से है, जो आत्मा का जन्मना-मरना नित्य मानते हैं। उनके मतानुसार जो मरणधर्मा है, उसका जन्म होना निश्चित ही है; क्योंकि उस मान्यता में किसी की मुक्ति नहीं हो सकती। जिस वास्तविक सिद्धान्त में मुक्ति मानी गयी है, उसमें आत्मा को जन्मने-मरने वाला भी नहीं माना गया है, जन्मना-मरना सब अज्ञानजनित ही है। प्रश्न- ‘तस्मात्’ पद का क्या अभिप्राय है? तथा ‘अपरिहार्ये अर्थे’ का क्या भाव है और उसके लिये शोक करना अनुचित क्यों है? उत्तर- ‘तस्मात्’ पद हेतु वाचक है। इसका प्रयोग करके ‘अपरिहार्ये अर्थे’ से यह दिखलाया है कि उपर्युक्त मान्यता के अनुसार आत्मा का जन्म और मृत्यु निश्चित होने के कारण वह बात अनिवार्य है, उसमें उपट-फेर होना असम्भव है; ऐसी स्थिति में निरुपाय बात के लिये शोक करना नहीं बनता। अतएव इस दृष्टि से भी तुम्हारा शोक करना सर्वथा अनुचित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4।9; 5।17; 8।15,16,21 इत्यादि
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज