श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि आत्मा आश्चर्यमय है, इसलिये उसे देखने वाला संसार में कोई विरला ही होता है और वह उसे आश्चर्य की भाँति देखता है। जैसे मनुष्य लौकिक दृश्य वस्तुओं को मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा इदं बुद्धि से देखता है, आत्मदर्शन वैसा नहीं है; आत्मा का देखना अद्भुत और अलौकिक है। जब एकमात्र चेतन आत्मा से भिन्न किसी की सत्ता ही नहीं रहती, उस समय आत्मा स्वयं अपने द्वारा ही अपने को देखता है। उस दर्शन में द्रष्टा, दृृश्य और दर्शन की त्रिपुटी नहीं रहती; इसलिये यह देखना आश्चर्य की भाँति है। प्रश्न- ‘वैसे ही कोई आश्चर्य की भाँति इसका वर्णन करता है।’ इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि आत्मसाक्षात् कर चुकने वाले सभी ब्रह्मनिष्ठ पुरुष दूसरों को समझाने के लिये आत्मा के स्वरूप का वर्णन नहीं कर सकते। जो महापुरुष परमात्मतत्त्व को भली-भाँति जानने वाले और वेदशास्त्र के ज्ञाता होते हैं, वे ही आत्मा का वर्णन कर सकते हैं और उनका वर्णन करना भी आश्चर्य की भाँति होता है। अर्थात् जैसे किसी को समझाने के लिये लौकिक वस्तु के स्वरूप का वर्णन किया जाता है, उस प्रकार आत्मा का वर्णन नहीं किया जा सकता, उसका वर्णन अलौकिक और अद्भुत होता है। जितने भी उदाहरणों से आत्मतत्त्व समझाया जाता है, उनमें से कोई भी उदाहरण पूर्णरूप से आत्मतत्त्व को समझाने वाला नहीं है। उसके किसी एक अंश को ही उदाहरणों द्वारा समझाया जाता है; क्योंकि आत्मा के सदृश अन्य कोई वस्तु है ही नहीं, इस अवस्था में कोई भी उदाहरण पूर्णरूप से कैसे लागू हो सकता है? तथापि विधिमुख और निषधमुख आदि बहुत-से आश्चर्यमय संकेतों द्वारा महापुरुष उसका लक्ष्य कराते हैं, यही उनका आश्चर्य की भाँति वर्णन करना है। वास्तव में आत्मा वाणी का अविषय होने के कारण स्पष्ट शब्दों में वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं हो सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इसी श्लोक से मिलता-जुलता कठोपनिषद् का मन्त्र इस प्रकार है -
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाऽऽश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः।।(1। 2। 7)
‘जो (आत्मतत्त्व) बहुतों को सुनने के लिये भी नहीं मिलता और बहुत-से सुनने वाले भी जिसे नहीं जान पाते, उस आत्मा का वर्णन करने वाला कोई आश्चर्यमय पुरुष ही होता है। उसे प्राप्त करने वाला निपुण पुरुष भी कोई एक ही होता है तथा उसका ज्ञाता भी कोई कुशल आचार्य द्वारा उपदिष्ट आश्चर्यमय पुरुष ही होता है।’
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