श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
उत्तर- स्थूल भूतों के और शब्दादि विषयों के कारणरूप जो पंचतन्मात्राएँ यानी सूक्ष्मपंचमहाभूत हैं- सातवें अध्याय में जिनका ‘भूमिः’, ‘आपः’, ‘अनलः’, ‘वायुः’ और ‘खम्’ के नाम से वर्णन हुआ है- उन्हीं पाँचों का वाचक यहाँ ‘महाभूतानि’ पद है। प्रश्न- ‘अहंकार’ पद किसका वाचक है? उत्तर- यह ‘समष्टि अन्तःकरण का एक भेद है। अहंकार की पंचतन्मात्राओं, मन और समस्त इन्द्रियों का कारण है तथा महत्तत्त्व का कार्य है; इसी को ‘अहंभाव’ भी कहते हैं। यहाँ ‘अहंकारः’ पद उसी का वाचक है। प्रश्न- ‘बुद्धिः’ पद यहाँ किसका वाचक है? उत्तर- जिसे ‘महत्तत्त्व’ (महान्) और ‘समष्टि बुद्धि’ भी कहते हैं, जो समष्टि अन्तःकरण का एक भेद है, निश्चय ही जिसका स्वरूप है- उसका वाचक यहाँ ‘बुद्धिः’ पद है। प्रश्न- ‘अव्यक्तम्’ पद किसका वाचक है? उत्तर- जो महत्तत्त्व आदि समस्त पदार्थों की कारणरूपा मूल प्रकृति है, सांख्यशास्त्र में जिसको ‘प्रधान’ कहते हैं, भगवान् ने चौदहवें अध्याय में जिसको ‘महद्ब्रह्म’ कहा है तथा इस अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में जिसको ‘प्रकृति’ नाम दिया गया है- उसका वाचक यहाँ ‘अव्यक्तम्’ पद है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इसी से मिलता-जुलता वर्णन सांख्यकारिका और योगदर्शन में भी आता है। जैसे-
मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त।
षोडशकसतु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः।। (सांख्यकारिका 3)
अर्थात् एक मूल प्रकृति है, वह किसी की विकृति (विकार) नहीं है। महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्राएँ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धतन्मात्रा)- ये सात प्रकृति-विकृति हैं, अर्थात् ये सातों पंचभूतादि के कारण होने से ‘प्रकृति’ भी हैं और मूल प्रकृति के कार्य होने से ‘विकृति’ भी हैं। पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय और मन- ये ग्यारह इन्द्रिय और पंचमहाभूत- ये सोलह केवल विकृति (विकार) हैं, वे किसी की प्रकृति अर्थात् कारण नहीं हैं। इनमें ग्यारह इन्द्रिय तो अहंकार के तथा पंचस्थूल महाभूत पंचतन्मात्राओं के कार्य हैं; किन्तु पुरुष न किसी का कारण है और न किसी का कार्य है, वह सर्वथा असंग है।
योगदर्शन में कहा है- ‘विशेषाविशेषलिग्ङमात्रालिग्ङानि गुणपर्वाणि।’ (2। 19) विशेष यानी पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय, एक मन और पंच स्थूल भूत; अविशेष यानी अहंकार और पंचतन्मात्राएँ; लिंगमात्र यानी महत्तत्त्व और अलिंग यानी मूल प्रकृति - ये चौबीस तत्त्व गुणों की अवस्था विशेष हैं; इन्हीं को ‘दृश्य’ कहते हैं।
योगदर्शन में जिसको ‘दृश्य’ कहा है, उसी को गीता में ‘क्षेत्र’ कहा गया है।
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज