श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक् ।
उत्तर- इस कथन का यह भाव है कि मन्त्रों के द्रष्टा एवं शास्त्र और स्मृतियों के रचयिता ऋषिगणों ने ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के स्वरूप को और उनसे सम्बन्ध रखने वाली सभी बातों को अपने-अपने ग्रन्थों में और पुराण-इतिहासों में बहुत प्रकार से वर्णन करके विस्तारपूर्वक समझाया है; उन्हीं का सार बहुत थोड़े शब्दों में भगवान् कहते हैं। प्रश्न- ‘विविधैः’ विशेषण के सहित ‘छन्दोभिः’ पद किसका वाचक है, तथा इनके द्वारा (वह तत्त्व) पृथक् कहा गया है- इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘विविधैः’ विशेषण के सहित ‘छन्दोभिः’ पद ऋक्, यजुः’, साम और अथर्व- इन चारों वेदों के ‘संहिता’ और ‘ब्राह्मण’ दोनों ही भागों का वाचक है; समस्त उपनिषद् और भिन्न-भिन्न शाखाओं को भी इसी के अन्तर्गत समझ लेना चाहिये। इन सबके द्वारा (वह तत्त्व) पृथक् कहा गया है, इस कथन का यह अभिप्राय है कि जो सिद्धान्त क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विषय में भगवान् यहाँ संक्षेप में प्रकट कर रहे हैं, उसी का विस्तारसहित विभागपूर्वक वर्णन उनमें जगह-जगह अनेकों प्रकार से किया गया है। प्रश्न- ‘विनिश्चितैः’ और ‘हेतुमद्भिः’ विशेषणों के सहित ‘ब्रह्मसूत्रपदैः’ पद किन पदों का वाचक है और इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जो पद भलीभाँति निश्चय किये हुए हों और सर्वथा असन्दिग्ध हों, उनको ‘विनिश्चित’ कहते हैं; तथा जो पद युक्तियुक्त हों, अर्थात् जिनमें विभिन्न युक्तियों के द्वारा सिद्धान्त का निर्णय किया गया हो- उनको ‘हेतुमत्’ कहते हैं। अतः इन दोनों विशेषणों के सहित यहाँ ‘ब्रह्मसूत्रपदैः’ पद ‘वेदान्तदर्शन’ के जो ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ आदि सूत्ररूप पद हैं, उन्हीं का वाचक प्रतीत होता है; क्योंकि उपर्युक्त सब लक्षण उनमें ठीक-ठीक मिलते हैं। यहाँ इस कथन का यह भाव है कि श्रुति-स्मृति आदि में वर्णित जो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्त्व ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा युक्तिपूर्वक समझाया गया है, उसका निचोड़ भी भगवान् यहाँ संक्षप में कह रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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