श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
तुल्यनिन्दास्तुतिमौनी संतुष्टो येन केनचित् ।
उत्तर- भगवान् के भक्त का अपने नाम और शरीर में किंचिन्मात्र भी अभिमान या ममत्व नहीं रहता। इसलिये न तो उसको स्तुति से हर्ष होता है और न निन्दा से किसी प्रकार का शोक ही होता है। उसका दोनों में ही समभाव रहता है। सर्वत्र भगवद्बुद्धि हो जाने के कारण स्तुति करने वालों और निन्दा करने वालों में भी उसकी जरा भी भेदबुद्धि नहीं होती। यही उसका निन्दा-स्तुति को समान समझना है। प्रश्न- ‘मौनी’ पद न बोलने वाले का वाचक प्रसिद्ध है, अतः यहाँ उसका अर्थ मननशील क्यों किया गया? उत्तर- मनुष्य केवल वाणी से ही नहीं बोलता, मन से भी बोलता रहता है। विषयों का अनवरत चिन्तन ही मन का निरन्तर बोलना है। भक्त का चित्त भगवान् में इतना संलग्न हो जाता है कि उसमें भगवान् के सिवा दूसरे की स्मृति ही नहीं होती, वह सदा-सर्वदा भगवान् के ही मनन में लगा रहता है; यही वास्तविक मौन है। बोलना बंद कर दिया जाय और मन से विषयों का चिन्तन होता रहे- ऐसा मौन बाह्य मौन है। मन को निर्विषय करने तथा वाणी को परिशुद्ध और संयत बनाने के उद्देश्य से किया जाने वाला बाह्य मौन भी लाभदायक होता है। परन्तु यहाँ भगवान् के प्रिय भक्त के लक्षणों का वर्णन है, उसकी वाणी तो स्वाभाविक ही परिशुद्ध और संयत है। इससे ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उसमें केवल वाणी का ही मौन है। बल्कि उस भक्त की वाणी से तो प्रायः निरन्तर भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन ही हुआ करता है, जिससे जगत् का परम उपकार होता है। इसके सिवा भगवान् अपनी भक्ति का प्रचार भी भक्तों द्वारा ही कराया करते हैं। अतः वाणी से मौन रहने वाला भगवान् का प्रिय भक्त होता है और बोलने वाला नहीं होता, ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती। अठारहवें अध्याय के अड़सठवें और उनहत्तरवें श्लाकों में भगवान् ने गीता के प्रचार करने वाले को अपना सबसे प्रिय कार्य करने वाला कहा है, यह महत्कार्य वाणी के मौनी से नहीं हो सकता। इसके सिवा सत्रहवें अध्याय के सोलहवें श्लोक में मानसिक तप के लक्षणों में भी ‘मौन’ शब्द आया है। यदि भगवान् को ‘मौन’ शब्द का अर्थ वाणी का मौन अभीष्ट होता तो वे उसे वाणी के तप के प्रसंग में कहते; परन्तु ऐसा नहीं किया, इससे भी यही सिद्ध है कि मुनिभाव का नाम ही मौन है; और यह मुनिभाव जिसमें होता है, वही मौनी या मननशील है। वाणी का मौन मनुष्य हठ से भी कर सकता है, इससे यह कोई विशेष महत्त्व की बात भी नहीं है; इससे यहाँ ‘मौन’ शब्द का अर्थ वाणी का मौन न मानकर मन की मननशीलता ही मानना उचित है। वाणी का संयम तो इसके अन्तर्गत आप ही आ जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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