श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
उत्तर- संसार में मनुष्य की जो आसक्ति (स्नेह) है, वही समस्त अनर्थों का मूल है; बाहर से मनुष्य संसार का संसर्ग छोड़ भी दे, किंतु मन में आसक्ति बनी रहे तो ऐसे त्याग से विशेष लाभ नहीं हो सकता। पक्षान्तर में मन की आसक्ति नष्ट हो चुकने पर बाहर से राजा जनक आदि की तरह सबसे ममता और आसक्ति रहित संसर्ग रहने पर भी कोई हानि नहीं है। ऐसा आसक्ति का त्यागी ही वस्तुतः सच्चा ‘संगविवर्जित’ है। दूसरे अध्याय के सत्तावनवें श्लोक में यही बात कही गयी है। अतः ‘संगविवर्जितः’ का जो अर्थ किया गया है, वही ठीक मालूम होता है। प्रश्न- तेरहवें श्लोक में भगवान् ने सम्पूर्ण प्राणियों में भक्त का मित्रभाव होना बतलाया और यहाँ सबमें आसक्तिरहित होने के लिये कहते हैं। इन दोनों बातों में विरोध-सा प्रतीत होता है। इसका क्या समाधान है? उत्तर- इसमें विरोध कुछ भी नहीं है। भगवद्भक्त का जो सब प्राणियों में मित्रभाव होता है- वह आसक्तिरहित, निर्दोष और विशुद्ध होता है। सांसारिक मनुष्यों का प्रेम आसक्ति के सम्बन्ध से होता है, इसीलिये यहाँ स्थूलदृष्टि से विरोध-सा प्रतीत होता है; वास्तव में विरोध नहीं है। मैत्री सद्गुण है और यह भगवान् में भी रहती है, किन्तु आसक्ति दुर्गुण है और समस्त अवगुणों का मूल होने के कारण त्याज्य है; वह भगवद्भक्तों में कैसे रह सकती है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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