द्वादश अध्याय
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो: ।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संगविवर्जित: ।। 18 ।।
जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है, सरदी, गरमी और सुख-दु:खादि द्वन्द्वों में सम है और आसक्ति से रहित है।। 18 ।।
प्रश्न- भगवान् का भक्त तो किसी भी प्राणी से द्वेष नहीं करता, फिर उसका कोई शत्रु कैसे हो सकता है? ऐसी अवस्था में वह शत्रु-मित्र में सम है, यह कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- अवश्य ही भक्त की दृष्टि में उसका कोई शत्रु-मित्र नहीं होता, तो भी लोग अपनी-अपनी भावना के अनुसार मूर्खतावश भक्त के द्वारा अपना अनिष्ट होता हुआ समझकर या उसका स्वभाव अपने अनुकूल न दीखने के कारण अथवा ईर्ष्यावश उसमें शत्रुभाव का भी आरोप कर लेते हैं; ऐसे ही दूसरे लोग अपनी भावना के अनुसार उसमें मित्रभाव का आरोप कर लेते हैं। परन्तु सम्पूर्ण जगत् में सर्वत्र भगवान् के दर्शन करने वाले भक्त का सबमें समभाव ही रहता है। उसकी दृष्टि में शत्रु-मित्र का किंचित भी भेद नहीं रहता,वह तो सदा-सर्वदा सबके साथ परम प्रेम का ही व्यवहार करता रहता है। सबको भगवान् का स्वरूप समझकर समभाव से सबकी सेवा करना ही उसका स्वभाव बन जाता है। जैसे वृक्ष अपने को काटने वाले और जल सींचने वाले दोनों की ही छाया, फल और फूल आदि के द्वार सेवा करने में किसी प्रकार का भेद नहीं करता- वैसे ही भक्त में भी किसी तरह का भेदभाव नहीं रहता। भक्त का समत्व वृक्ष की अपेक्षा भी अधिक महत्त्व का होता है। उसकी दृष्टि में परमेश्वर से भिन्न कुछ भी न रहने के कारण उसमें भेदभाव की आशंका ही नहीं रहती। इसलिये उसे शत्रु-मित्र में सम कहा गया है।
प्रश्न- मान-अपमान, शीत-उष्ण और सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में सम कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- मान-अपमान, सरदी-गरमी, सुख-दुःख आदि अनुकूल और प्रतिकूल द्वन्द्वों का मन, इन्द्रिय और शरीर के साथ सम्बन्ध होने से उनका अनुभव होते हुए भी भगवद्भक्त के अन्तःकरण राग-द्वेष या हर्ष-शोक आदि किसी तरह का किंचिन्मात्र भी विकार नहीं होता। वह सदा सम रहता है। न अनुकूल को चाहता है और प्रतिकूल से द्वेष ही करता है। कभी किसी भी अवस्था में वह अपनी स्थिति से जरा भी विचलित नहीं होता। सर्वत्र भगवद्दर्शन होने के कारण उसके अन्तःकरण से विषमता का सर्वथा अभाव हो जाता है। इसी अभिप्राय से उसे इन सबमें सम रहने वाला कहा गया है।
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