श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
उत्तर- मनुष्य के मन में जिन इष्ट वस्तुओं के अभाव का अनुभव होता है, वह उन्हीं वस्तुओं की आकांक्षा करता है। भगवान् के भक्त को साक्षात् भगवान् की प्राप्ति हो जाने के कारण वह सदा के लिये परमानन्द और परमशान्ति में स्थित होकर पूर्णकाम हो जाता है, उसके मन में कभी किसी वस्तु के अभाव का अनुभव होता ही नहीं, उसकी सम्पूर्ण आवश्यकताएँ नष्ट हो जाती हैं, वह अचल-प्रतिष्ठा में स्थित हो जाता है; इसलिये उसके अन्तःकरण में सांसारिक वस्तुओं की आकांक्षा होने का कोई कारण ही नहीं रह जाता। प्रश्न- यहाँ ‘शुभाशुभ’ शब्द किन कर्मों का वाचक है और भगवान् के भक्त को उनका परित्यागी कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- यज्ञ, दान, तप और वर्णाश्रम के अनुसार जीविका तथा शरीर निर्वाह के लिये किये जाने वाले शास्त्रविहित कर्मों का वाचक यहाँ ‘शुभ’ शब्द है; और झूठ, कपट, चोरी, हिंसा, व्यभिचार आदि पापकर्म का वाचक ‘अशुभ’ शब्द है। भगवान् का ज्ञानी भक्त इन दोनों प्रकार के कर्मों का त्यागी होता है; क्योंकि उसके शरीर, इन्द्रिय और मन के द्वारा किये जाने वाले समस्त शुभ कर्मों को वह भगवान् के समर्पण कर देता है। उनमें उसकी किंचिन्मात्र भी ममता, आसक्ति या फलेच्छा नहीं रहती; इसीलिये ऐसे कर्म कर्म ही नहीं माने जाते[1] और राग-द्वेष का अभाव हो जाने के कारण पापकर्म उसके द्वारा होते ही नहीं, इसलिये उसे ‘शुभाशुभ का परित्यागी’ कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4। 20
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