श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति ।
उत्तर- इष्ट वस्तु की प्राप्ति में और अनिष्ट के वियोग में प्राणियों को हर्ष हुआ करता है; अतः किसी भी वस्तु के संयोग-वियोग से अन्तःकरण में हर्ष का विकार न होना ही कभी हर्षित न होना है। ज्ञानी भक्त में हर्षरूप विकार का सर्वथा अभाव दिखलाने के लिये यहाँ इस लक्षण का वर्णन किया गया हैं। अभिप्राय यह है कि भक्त के लिये सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार, परम दयालु भगवान् ही परम प्रिय वस्तु हैं और वह उन्हें सदा के लिये प्राप्त हैं। अतएव वह सदा-सर्वदा परमानन्द में स्थित रहता है। संसार की किसी वस्तु में उसका किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष नहीं होता। इस कारण लोकदृष्टि से होने वाले किसी प्रिय वस्तु के संयोग से या अप्रिय के वियोग से उसके अन्तःकरण में कभी किंचिन्मात्र भी हर्ष का विकार नहीं होता। प्रश्न- भगवान् का भक्त द्वेष नहीं करता, यह कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- भगवान् का भक्त सम्पूर्ण जगत् को भगवान् का स्वरूप समझता है, इसलिये उसका किसी भी वस्तु या प्राणी में कभी किसी भी कारण से द्वेष नहीं हो सकता। उसके अन्तःकरण में द्वेष-भाव का सदा के लिये सर्वथा अभाव हो जाता है। प्रश्न- भगवान् का भक्त कभी शोक नहीं करता, इसका क्या भाव है? उत्तर- हर्ष की भाँति ही उसमें शोक का विकार भी नहीं होता। अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति में और इष्ट के वियोग में प्राणियों को शोक हुआ करता है। भगवद्भक्त को लीलामय परमदयालु परमेश्वर की दया से भरे हुए किसी भी विधान में कभी प्रतिकूलता प्रतीत ही नहीं होती। भगवान् की लीला का रहस्य समझने के कारण वह हर समय उनके परमानन्द स्वरूप के अनुभव में मग्न रहता है। अतः उसे शोक कैसे हो सकता है? एक बात और भी है- सर्वव्यापी, सर्वाधार भगवान् ही उसके लिये सर्वोत्तम परम प्रिय वस्तु हैं और उनके साथ उसका कभी वियोग होता नहीं, तथा सांसारिक वस्तुओं की उत्पत्ति-विनाश में उसका कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। इस कारण भी लोकदृष्टि से होने वाले प्रिय वस्तुओं के वियोग से या अप्रिय के संयोग से उसे किसी प्रकार का शोक नहीं हो सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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